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________________ श्री० चम्पतरायजी जैन अर्दितर सिक्षातके विचारमें यह ध्यान रखनेकी बात है कि प्रत्येक कार्यका प्रभाव को और जिसके प्रतिकार्य किया गया है, उसके ऊपर समान रूपमे पडता है। सभव है कि उस कार्य प्रभासे लपमगत दृश्य व्यक्ति तो यच जावे, परतु का नहीं बचा ! अपनी बात उसे दृष्टि कम पडती है । होता यह है कि जहां एक कार्य मन-वचन-कायसे किया कि सूक्ष्म पुद्गल ( matter) आमा सार चिपट गया | यह पुदल आरमाके स्वभावको बिगाडता है। आत्मा एक अखड (Simple) पदार्थ है, इसलिए अमर है। संयुक्त पदार्थ ( Compounds ) ही नाशवान होते हैं । अलबत्ता अद्के मेलसे-उलम हुआ आमा स्वतः जन्ममरणका भोक्ता बनता है। पुद्गल आत्माके ईश्वरीय गुणाला दक देता है। वाइचिलमें कहा है कि तुम परमात्मा हो: ( I have said, 'ye are Gods ) यादे मामा पुलके दुखदाई समर्गसे अपनेको छुडा ले तो वह परमात्म-पदको पा सकता है । किन्तु पुदल तो जीवात्मामें उसके प्रत्येक विचार, प्रत्येक शब्द और प्रत्येक कर्मके साथ आ रहा है, फिर पर रुके कसे ? निस्सन्देह वह एकदम नहीं रुक सकता। इसके रोकनेके लिये नियमित मार्ग निर्दिष्ट है, जिसका पर्यटक बनना होता है । मुहलका आना और वधना शुभ और माम रूपमे होता है। अतः पहले तो अशम पुदलका आना रोकना चाहिये । अर्थात् दरेकर्म नहीं रना चाहिये ! फिर धीरे २ पुद्रालका आना सर्वथा एक जावेगा। इन्द्रिय-वासनाजन्य स्वार्थमई भाकाक्षायें ही निकृष्ट कर्म पुद्गल आप्रवका कारण है। अतः बह विचार, वह शब्द, वह कार्य जो खास दुषित नहीं है, इस निकट आश्वको रोकने कारणभूत है । इसलिये ही अपने पोसी पर प्यार करनेसे एक व्यक्ति इस प्रकारके निकृष्ट आश्रवसे बच जाता है और किसीसे द्वेष करनेसे पर वह चाहे पशुही क्यो न हो. एक व्यक्ति अपने लिए बहुत बुरी तरहसे कर्मपदलको अपना उता है। यही कारण है कि बाइबिलकी आगा है कि भार मत | (Thou shalt not kill) इस आगामें कोई ऐसा शब्द नहीं है जो इसे किन्हीं खास प्राणियोंके लिये सीमित करता हो । किन्तु आज तो उसे ऐसे पढते है मानो उसमें कहा गया है कि आदमीको मत मार ( Thou sbalt not kill man!) उत्कट नियम यह स्पष्ट बताता है कि हमें एक पशुको भी क्यों मारना नहीं चाहिये । मारनेकी क्रियासे हम अपने स्वभावको खोते और दुःखी होते है। इसलिये किसीको नहीं मारना स्वय अपनी रक्षा करना है। . जब हम ऐसा वाव करते है कि जिससे दया और प्रेमके भाव हमारे स्वभावमें मन्द और मृदा हो जाते हैं एव द्वेषपूर्ण खार्थचनकी पुष्टि होती है तो निस्सन्देह हमारा आत्महनन होता है। मानवका भावी जीवन इसके कारण पतित और दुखमय होता है। निरापराध प्राणियोंकी हत्या करनेपालक हृदयमें यह तीन खोटी दुर्भावनायें जागत हो जाती है : (१) स्वार्थ, (२) कठोर हृदयता, (३) अविचार ( अविवेक)! वह स्वार्थी है क्योंकि वह अपने क्षणिक सुखके लियेही दूसरके भाण लेता है, वह कठोर हृदय क्योंकि दयाका स्रोत उसके हृदयमें सूख गया है, जो उसे प्राणि इत्यासे भव्य रखता ! वह अविचारी है, क्योंकि उसे इस बातका ध्यान नहीं है कि उसके इस कृत्यका उसपर क्या असर पडेगा ? दुष्ट प्रकृति जीवात्माओंका अगला जन्म निस्सन्देह पशुओंमें होगा। प्राणिहत्याका निषेध नये अइंदनामा में भी है । यहाँ कहा है कि "भा और सीख इसका अर्थ क्या है । मुझे दया चाहिये और बलि नहीं 11 जव सालमे एक या दो दफा किसी देवताके
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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