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विश्वकी विभूति भ० महावीर !
रचयिता. ~~ साहित्यभूषण सुरेन्द्र सागरजी जैन, 'प्रचंडिया' कुरावली (मैनपुरी)
विभुवीर ने बताया हमें~
यह पशु बलि !
यह नर बलि !
लाभ नहीं मूक पशुओंके इनमें है ।
वह तो निरीह हैं।
उनकी प्राण है।
अपनेही समान है।
कर्मफल तो कर्ता को मिलेगा ही ।
दुष्कर्म क्षय होते, शुभ कर्म करनेसे !
जीवके इनमें भौरभी पाप है ।
यह हिंसा है। रागद्वेष बहते हैं इसके परिसेवनसे ! परिशोध होना तो असम्भव इससे है इसलिए अपनाओ दयाको सत्यको ' अहिंसा मर्मको समझो और समझा।
कुलिश हृदयभी
हो सकता नवनीतला !
स्वयम्को जीना है ।
उसी भांति दूसरोंको जीवन दो
सरल उपाय है !
किसीके अपराधको
क्षमा कर देने में होता परितोष है।
होता आत्म-तोप है।
क्षमा वीर-भूषण है ।
सरल विचारले
मृदुक व्यवहारसे
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अपने भरातिको
हृदयसे कर सकते विजित है ।
सत्यमय हो जीवन !
सत्यमय हो क्षनक्षम !
सत्यमयी हो जन मन !
सांची आंच क्या
जीवन पवित्र हो
शुद्ध हों भावनाएँ ।
सद् हो कामनाएँ ।
परमित हो जीवनका मापदण्ड !
सयममय आचरण
हटा सकता है सारे दुखद आधरण ! कचनको शुद्ध करनेके लिए तप्त करते हैं जन जलती कृशानुमें । इसी भाँति अपनाभी जीवन हो तपमथी! होनें यशस्वी ।
ताकि परिशोष हो
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अपनी इस कायासे मनसे धनसे
हो जहा तक स्याग करनाही धर्म है।
संग्रह अधिक
जागरित तृष्णा अधिक होती !
इसमें परिबद्ध हो होते अनर्थ कर्म ।
भूलते हैं धर्म-मर्म ।
अहम् मान्यता है बुरीबला ।
कर न सकती है यह कुछभी भला !!
इसी लिए अन्य प्राणियोंके समान