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प्रो० ए. एन. उपाध्याय
धौम्य लक्षण संयुक्त है । यह अनादि है और द्रव्यके, अनन्त गुण व पर्याय है । जीव व अजीव दो मुल्य भेद हैं। अजीयके पुल, धर्म, अधर्म, आकाश व काल भेद है । इस प्रकार व्यके षट्भेद ।। ससारका कारण सीव व पुदल (कर्म) परमाणुओंका सम्बंधही है। सप्त तोंमें इस सम्बध दया उससे मुक्ति प्राप्त करनेकाही वर्णन है। यही जैनियोंका फर्म सिद्धान्त है जो उनका निनका
खतंत्र सिद्धान्त है और जैन सिद्धान्तमा एक अविभाज्य अंग है। मोक्ष का मार्ग रलाय कहा है। रत्नत्रय अर्थात् सम्यग दर्शन, ज्ञान, चरित्र । सम्यग् श्रद्धा होतेही जो ज्ञान होता है यह सम्यग्ज्ञान है । ज्ञान (अधिगम) प्रत्यक्ष व परोक्ष मेद रूप है तथा प्रमाण व नय द्वारा होता है। अनेकातदाद (स्यादवाद) जैनदर्शनका एक अमूल्य सिद्धान्त है और समन्वयके लिए सर्वोत्तम तथा अद्वितीय पत्र है | चारित्र साधु तथा गृहस्थके भेद रूप है। श्रावक १२ व्रताको पालन करते हुवे तथा ११ (प्रतिमाएँ) चढ कर मुनि होता है । साधुगण महाबत पालन करते हुए, २२ परीषह सहते हुए, १२ अमुपेक्षा (मावना) निरन्तर ध्यान रखते हुए, मन, वचन, कायको निश्चल करके सतत् पवन करते है । मुक्ति साधनके लिए तो निनात्म स्वभाव, लय हो कर शुक्ल ध्यान करनाही श्रेय हैं। यही यथाख्यात चरित्र है और मुक्तिका केवल मात्र साधन | . जैनधर्ममें ईश्वरके कर्तत्ववादको कोई स्थान नहीं है । जैनधर्म ईदबरका अर्थ मुक्तामा करता ६। तीर्थकर व अन्य सिद्ध जीव ईश्वर हैं। जैनी इनकी बडी भक्तिभावसे पूजा करते हैं। जैनी गुरुकामी पूजन करते हैं क्योंकि वह मोक्षमार्गारुढ एक आत्माकी उन्नत दशाके परिचायक है। जैनधर्म सिखाता है कि अपने लक्ष्यकी प्राप्तिके लिए स्वयही कम्मोका क्षय करना होगा। जैनधर्म बलवान, वीर तथा स्वाभिमानी जनोंका धर्म है।
आज कल कुछ कारणों से जैनी हिन्दू कहलाते हैं। वैसे धर्म अपेक्षा वे स्वतंत्र हैं। उसरीय भारतकी कुछ भावियो हिन्दू व जैन दोनोंही धर्मोके अनुयायी हैं, उनमें परस्पर वैवाहिक सम्बधमी होते हैं। समस्त भारतम फैले होनेके कारण उनके रीतिरिवाजों पर बहुसख्यक हिन्दुऊका प्रभाव पड़ा है । भारतके स्वातंत्र्य संग्राम मैनियोंने तन मनसे भाग लिया है। अपने लिए जैनोंने पृथक भविष्कार व आखासनोंकी कमीमी मांग नहीं की है। जहा तक हिन्दुसे वात्सर्य एक धर्म विशेषसे है और इसका अर्थ भारतीय नहीं ६, यहा तक 'जैन 'हिन्दू' नहीं कहे जा सकते। उनकी अपनी पृयक सस्कृति व धर्म है।
जैनी वेर्दीको नहीं मानवे, उनके अपने स्वतंत्र धर्म शास्त्र है। ब्राह्मण पुजारियोंका सम्मान, पाश्रम धर्मके धार्मिक क्रिया-कर्म, हिन्दू पुराण तथा उनके वर्णन, देवी देवता, वैदिक तथा पौराणिक कर्तृत्ववाद, अवतार वाद, इत्यादिमें जैन विश्वास नहीं करते । शङ्कराचार्यने अनेक स्थलों पर इसकी आलोचना की है। यदि जैनियों के बाल धार्मिक क्रियाकाण्ड व मान्याताओंमें हिन्दुओंसे सामन्जस्य है तो इस कारण नहीं कि जैनधर्म इसकी आज्ञा देता है वरन् इस कारण कि पढौसी हिन्दुवोंकी रीतिरिवान व मान्यताओंका उन पर प्रभाव पड़ा है। जैनियोंके पृथक तीर्थ स्थान है भार पृथक सौहारमी । साधारण सौहारभी वह मनाते हैं। समान शब्दावलि नहीं वरन् उनके दार्शनिक भाव व अर्थ, व दर्शन व चारित्र सम्बधी उनका मूल्यही विचारयोग्य है। अपने पृथक इतिहास पदर्शनको अपेक्षा जैन व बौद्ध धर्म हिन्दू नहीं कहला सकते |