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भ० महावीर स्मृति-प्रथा
यह शिल्पकलाके उत्कृष्ट उदाहरण है। मूलबदी, कारकल, वराङ्ग, देलगोल के मन्दिर, अत्यंत सुसज्जित है, और एक महत्वपूर्ण तथा शान्त स्थान पर बने हुवे हैं। आवू और पालीवानाके सुगममरके जिनालय कलाके अद्वितीय उदाहरण है। वह धनवान निर्माताओंकी धार्मिक सुरुचि तथा शिल्पकारोंकी महान योग्यताके जीवित उदाहरण है। इनमेंसे कुछ मन्दिर इतने मनोज हैं कि उनमें पहुंचतेही मनुष्य सांसारिक चिन्ताओंको मूल नाते हैं। बौद्धोकी तरह जैनियोंकेमी स्तूप होते थे। मथुराके क्षत्रप तथा कुशन फालके स्तूप वो प्रसिद्ध है हो । वीर्यकर त्या केवलीयोंके वरण चिों की पूजा जैनी करते आये हैं और पार्वताय पहाडी सम्मेद शिखर पर यह विशेषतः पाये जाते हैं। दिगम्वर भर्तियाँ नम होती है और मूर्ति निर्माण कलाके उत्कृष्ट उदाहरण है। अषणवेलालिम बाहुबलिकी मूर्ति ५७ फीट ऊँची है । एक पर्वत पर एकही दिलाको काट कर धनाई गई है और दशवीं शताब्दीकी है। यह ससारके अद्भुत अवशेषों से है । तत्पश्चातळ शताब्दियोंमें कारक तथा वेनूरमे इनकी नाल की गई । बालियर राज्यमें वडवानी में इनसेभी ऊंची वृषभ तीर्थकी मूर्डि है। लेकिन उत्कृष्ट शिल्पकला तथा महान् विचारशीलतामें बेलगोलको यह समानता नहीं कर सकतीं । बुन्देल खण्डम ११ वी १२ वीं शताब्दी, तथा ग्वालियरमें १५ वीं के भग्नावशेष है। निर्माण कलाकी अन्य कृतिया मानस्थम्म है जो जैन मन्दिरोंके सम्मुल बनाए जाते थे। यह दक्षिण भारतमें विशेषतः पाये जाते हैं। राजपूतानाम चित्तौर का बैन स्तम्म ५० फीट ऊँचा है और कला तथा शिल्पकारीका उत्कृष्ट अवशेष है। जैन मन्दिर तथा स्तूप एक अन्य दृष्टिकोणसे भी महत्वके हैं। इनपर मिले हवे शिलालेख जैनियों के पार्मिक इतिहासही नहीं वरन् भारतके इतिहासक लिएमी सहायक सिद्ध हुए हैं और अपने समकालीन इतिहासको दवाते हैं।
जैनाचार्योंके पास साहित्य सजनके लिए समय तया अवकाश था। अतः उन्होंने साहित्य रचना महान योग दिया है । किसी विशेष मापा को उन्होंने नहीं अपनाया । अर्धमागधी, समत, प्राकृत (अपभ्रश ) आदिमें ही प्राचीन रचनाएँ मिलती हैं । दक्षिण तामिल तथा कन्नड भाषाओंभ इनकी वडीही मूल्यवान रचनाएँ हैं। वे गणित, वैद्यक, व्याकरण, राजनीति, आदि विषयोपरमी है । प्राकृत का साहित्य तो विशेषतः जैनाचायोका साहित्य ही है और प्राचीन भाषाओंका शान इन स्वनाओंकी सहायता से ही किया जाता है । वास्तवमें नैनाचायोनही इन माषाओंके साहित्य की उच्च स्थान दिया है और नवीन शैली की मूल्यवान रचनाओंके द्वारा इनका साहित्य भाण्डार भरा है।
इतना साहित्य सृजन हुवा तो इसके लिए पंथ संग्रहालयोंकी आवश्यकता स्वाभाविक यी । । प्रत्येक जैन मन्दिर तथा मठमें शान भण्डार मिलते है। उन्हीं संग्रहालयोंमें जैनेतरोंका साहित्यमी मिलता है। पट्टन, जैसलमेर तथा मुहबदीके संग्रहालय हमारी राष्ट्रीय निधि हैं। इनसे हमें ऐवि. हासिक ज्ञान होता है ! यह प्राचीन रचनाएँ, धर्म त्या दर्शनके विद्वानों के लिए बडीही सहायता पहुँचाती है | . जैन दर्शनका अन्तिम लक्ष्य जोषका ससारसे मुक्ति प्राप्त करना है। 'सत्' उत्पाद-व्यय