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भ० महावीर-स्मृति-ग्रंथ ।
पिता सिद्धार्थ यहाँके राजा थे और उनकी माता त्रिशला लिच्छवि राजक्शकी राजकुमारी थी । महावीर स्वामीके विवाइके वारेमें मतभेद है। एक मान्यता है कि वह आजन्म अविवाहित रहे । दूसरी मान्यता है कि उनका यशोदासे विवाह हुवा और उनसे प्रियदर्शना पुत्रीमी हुई । उन्होंमे भगवान पार्श्वनाथका अनुकरण करते हुवे धोर तपश्चरण किया और उपटगों द्वारा अनेक कष्ट सहे ! ध्यान द्वारा उन्होंने केवल ज्ञान प्राप्त किया। स्वयं वह धार्मिक जीवन की प्रतिमात ही थे और उन्होंने ससारके कष्टोंसे मुक्ति पानेके लिए धर्मका मार्ग बताते हुवे भ्रमण कियाथा ! जीवमात्रको रक्षाकोही सच्चा धर्म बताया और बताया कि ससारिक दुःख स्वयं अपनेही कमोंका फल है । अतः मोक्ष प्राप्तिक लिए कमोंका नाश आवश्यक है । वे पूर्वी भारतके राज्य घरानोंसे सम्बधित थे । अतः उन्च तथा निम्न दोनों वर्गों में उनकी मान्यता हुई । उनके सिद्धान्त सार्वमौमिक थे और उनके तर्क, सहनबुद्धि, वास्तविकता, और बौद्धिक समभाव पर, अवलम्बित थे । अतः इसमें आश्चर्यका कोई कारण नहीं है कि उनका शिष्यसमुदाय, (साधु, आर्यिकायें, श्रावक, व श्राविकाएँ) वडाही सुसगठित था। निरन्तर तीस वर्ष तक उन्होंने विहार किया और अन्तमें ५२७ ई. पू.को पाषा नि० पटना में इस नश्वर शरीरसे ७२ वर्षकी आयुमें मुक्ति पाई। उनके निर्वाणोपलक्षमें मल्लकी और लिलाव राजघरानों ने दीपावली मनाई जो कि आजतक मनाई जाती है | भगवान महावीरके समयमै भारत वर्षके इतिहासमें महान धार्मिक क्रान्ति हुई । उनके समकालीन बुद्ध तथा गौशाल सदृश धार्मिक गुरु थे । महात्मा बुद्धकी तरह भगवान महावीरको एकके पश्चात. दूसरे गुरूकी शरण नहीं लेना पड़ा। उन्होंने पार्वनाथके धर्म पर, जो कि उस समयमी सुसगठित या, आचरण किया और उसका प्रचार भी किया । उन्होंने एक वैज्ञानिक धर्म तथा दर्शनही अपने पश्चात नहीं छोड़ा वरन एक अत्यत सुसंगठित साधु तथा अन्य गृहस्थ सघ (समान) को जन्म दिया कि जिसने उनके तमा उनके पश्चात् के शिष्योंकी शिक्षाका अक्षरशः पालन तथा अनुकरण किया । . .
जैन धर्मके इतिहासमै अनेक ज्वलंत स्थल हैं । महावीर स्वामीके पश्चात जैन धर्मका नेतृत्व बडे २ आचार्यों मुनियों ने किया और विम्विसार, चन्द्रगुप्त, खाखेल सदृश महारानाओंका सरक्षणमा उसे मिला । क्रमशः इसका प्रमाव दक्षिण व पश्चिम भारतमें गया । जव एक भयकर अकाल पडा, तो कहा जाता है कि भद्रबाहु आचार्य अपने शिष्य मडल के साथ दक्षिणको विहार कर गये थे भार तमीसे दिगम्बर व श्वेताम्बर आनायोंकी नींव पड़ी जो आजतक जीवित है। प्राचीन कालमोहा जैन साधुगण घोर तपश्चरण करते आये हैं । अतएव भतभेद पहिले मुनियोंमें हुवे फिर गृहत्या परमी उनका प्रभाव पहा । मूलधार्मिक सिद्धान्त दोनों में एफही है, केवल कुछ छोटी २ यात्राम, पौराणिक मान्यताओं, तथा साधु-समाजके आचरण सम्वधी क्रियाओंमें मतमेद है। ___साधुवर्गके कठिन तपश्चरण तथा पवित्र जीवनने सहजही राजाओं, रानियों, मत्रियों, सेना पतिओं, तया धनवान व्यापारिओं को अपनी ओर आकृष्ट किया, जो कि जैनी होगए । दक्षिण तथा गुजरातमें राजघराने ही नहीं वरन अनेक शासक ही कट्टर जैनधर्मानुयाई हो गये । दक्षिणके गग, कदम्ब, चाइल्य तया राष्ट्रकुट राजवशीने जैन धर्मका संरक्षण किया। यह स्व महान जैनाचार्योंके प्रभावका ही फल था। मान्यखेट के कुछ राष्ट्रकूट वंशीय राजा जैनधर्मके दृद्ध अनुयाई ये और उनके संरक्षण