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। बा० बनारसीदास जैन।
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प्रपन्न शब्दसे किया गया है। ये एक प्रकारकी रसीद या प्रमाणपत्र हे जिन्हें अधिकारी व्यक्ति साध्य या प्रमाणके लिये अपने पास रखता था।
अनधिकारी पुरुषसे कीलमुद्राओं और प्रवनकोके पाठकी रक्षाके लिये इनके ऊपर उसी परि'माणका एक दूसरा टुकड़ा रख कर उन पर रस्सी लपेट दी जाती थी। फिर रस्सीके दोनो सिरे ऊपर वाले टुकडे पर रख कर उनको गीली मिट्टीसे ढाप दिया जाता था और मिट्टी पर प्रमाण पुरुषकी मोहर लगा दी जाती थी। इन लेखोका काल विक्रमकी छठी सातवीं शताब्दी हो सकता है।
यह तो हुई प्राचीन समयमें प्राकृतके विदेश-प्रचारकी कथा । आधुनिक युगमें सोलहवीं शताब्दीसे पाश्चात्य ( यूरपीन) लोग मारतमे आने लगे। तभीसे उन्होंने भारतकी नवीन तथा प्राचीन भाषाओको सीखना शुरू कर दिया था जिसके फलस्वरूप उन्होंने पिछले सौ हेढ सौ वरसमें प्राकृतसबधी अत्यत महत्त्वपूर्ण और सराहनीय अनुशीलन किया है। इसका सविस्तर वर्णन करनेके लिये एक विशाल प्रथकी आवश्यकता होगी। अतः यहा कतिपय मुख्य प्रकाशनों की सूची दी जाती है।
पाली-पाश्चत्य विद्वानों ने पालीका बहा गहरा और सूक्ष्म अध्ययन किया है। लदनकी "पाली टैक्सट सोसायटी" द्वारा रोमन अक्षरोंमें समग्र पाली बिटिक तथा बहुतसी विशाल टीकाए मुद्रित हो चुकी हैं। ___ जर्मनी के प्रोफेसर गाइनरने जर्मनमें पालीका व्याकरण रचा जो रोमन अक्षरोंमें मुद्रित हुमा है।
चिल्डरका पाली कोष तथा डेविड और स्टोडका पाली कोप वडे उपयोगी प्रय हैं।
अशोककी धमलिपियां । ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियोंके पढे जानेकी कथा वडी रोचक है। धर्मलिपियोंके सपादनमें कनिंघम, सेनार(ट) हुलश, ब्यूलर और पूलनरने अच्छा काम किया।
प्राकृत-प्राकृतका सबसे पहला स्वतंत्र व्याकरण लैटिन भाषामें मो० लासनने रचा जो सन् १८३७ में प्रकाशित हुआ। इसके बाद सन् १९०० में रिचर्ड पिशलने जर्मन भाषामें विशालकाय प्राकृत व्याकरणकी रचना की जो विद्वत्ता और धैर्यका नमूना है। सन् १९१७ में ए. सी. बलरने प्राकृत प्रवेशिका " Introduction to Prakrit " बनाई जिससे योरप तथा भारतमें प्राकृत अनुशीलनका खून प्रचार हुआ । खेद है कि प्राकृतके कोष निर्माणका काम अवतक किसी पाचात्य विद्वानके हाथसे नहीं हुआ। प्रस्तुत लेखकके विद्यागुरु डा० ए, सी, वूल्लरने प्राकृत कोपके लिये सामग्री इकही करनी शुरू कर दी थी और वे अपने जीवन के अतिम दिनों तक ऐसा करते रहे। उनकी यह सामग्री एक बडे रजिस्टर के रूपमें जिसमें १२,००० सेमी अधिक प्राकृत शब्दोंकी सूची तथा स्यान-निर्देश है अब कदाचित् पजाब यूनिवर्सिटी लाहौरके कब्जेमें है।
चीनी ताकस्तानसे मिले प्राकृत लेखोंका पाउ-निर्माण, उनका अनुवाद, उनकी भाषाका व्याकरण इत्यादि सब पाश्चात्य देशोंमें हुए हैं।