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________________ २०४ म० महावीर स्मृति मंध। अधिक प्रभाव नहीं पहा । ब्रह्माके अतिरिक्ष पालीका प्रचार श्याम देशमें जिसे अब "याइसेंद" कहते हैं खूब हुआ है । लका, ब्रह्मा और श्यामसे अपनी २ लिपिमें पाली त्रिपिटकके सस्करण निक हैं जो भारतकी कई यूनिवर्सिटियोंको भेंटरूप दिये गये हैं। इन देशों के साथ भारतके दक्षिणी विमागका व्यापारिक और धार्मिक संबंध चिरकालसे स्थापित हो चुका था। अतः पाली या प्राकृतका पहा चले जाना आवर्यकी बात नहीं। विदेशमें पाली-प्राइतके प्रचारका मुख्य कारण बौद्धधर्म रहा है। इन देशों के साथ २ पालीका प्रचार तिब्दत तथा चीनमेंभी हुआ था जहा त्रिपिटक आदि ग्रंथोंके तिब्बती और चीनी भाषा अनुवाद किये गये। इनके अतिरिक्त पालीका थोडा बहुत प्रचार इंडोनीशिया (विशाल भारत) मेंभी हुआ होगा। परंतु महायानका जोर हो जाने पर वह घट गया। अब इन देशोंमें इसका पठनपाठन फिरसे बारी होने लगा है। मधुरिया प्रदेशमें अब तक प्राचीन देवनागरीके अक्षर सिखाये जाते हैं। लेकिन आश्चर्य तो यह है कि एक समय प्राकृतका प्रयोग चीनी तुर्किस्तान जैसे सुदूर देश में होता था और वहभी तत्स्थानीय राज-कार्य, । पचास वर्ष पहले कोई व्यक्ति इस वातके तय्यकी कल्पना नहीं कर सकता था क्योंकि अब वहां कोईभी पाली-माकृत और भारतीय संस्कृतिका नाम वक नहीं जानता। परंतु धन्य है पाश्चात्य विद्वानों की निगासा, सतर्कता, धैर्य और साइसको जिनके द्वारा उन्होंने समारसे लुप्त हो गई हुई अनेक संस्कृतियोंका पुनर्निमाण किया है। चीनी तुर्किस्तानमें प्राकृत लेखोंकी उपलब्धिमी इन्हीं गुणों और प्रवृत्तियाँकी ऋणी है। इस उपलब्धिको कया वहीं रोचक है। अत: सक्षेपमें यहा दी जाती है। सन् १८८१ में कूचा (किरयान ) से कर्नल वावरको भोज पत्रों पर लिखा हुआ वैद्यलका एक प्रय प्राप्त हुआ जिसके अक्षर गुमकालीन रिपिसे मिलते जुलते थे। इसकी भाषा संस्कृत थी। इस एक साधनसे सर आल टाइनने जो ओरियटल कालिज लाहोरके प्रिन्सिपल थे यह अनुमान किया कि किसी उमय मुकित्तानमें भारतीय सभ्यताका प्रचार रहा होगा। फिर सन् १८९७ में काशगरसे खरोठी लिपिमें लिखा हुआ फाली " घम्मपद् " का प्राकृत अनुवाद मिला। इससे सर आरल साइनका अनुमान औरमी दृद्ध हो गया। अब उन्होंने भारतीय सरकारको लिखकर प्राचीन अवशेषोंकी शोध खोजके लिये चीनी तुर्किस्तानमें जानेका प्रबन्ध कर लिया जिसके फलस्वरूप वे सन् १९००, सन् १९०६ आर सन् १९१३ में चीनी तुस्तिान गये। उन्होंने अपनी यात्राओं का विस्तृत वर्णन बडे सरस ढगसे किया है आर प्राचीन अवशेषोंके सेंकडों चित्र दिये हैं जिनमें प्रस्तुत रेखगे सबध ररानेवाले सफटी और चमडे पर त्याहीसे खरोठी लिपिमें लिखे हुए प्राकृत के बहुत से प्लेग है। उस लेस मडके कोलाकार टुकडो पर है और शायद इसी लिये इन लेखोंमें इनका निश " फोरमद्रा" मन्दसे किया गया है। ये कोलमुद्राएं देशके राजाकी ओरसे सरकारी कर्मचारियों के नाम लिखी गई है। उनमें किसी मुरुदने या तरकारी मानलेको चर्चा है। र मामी नारस टुटों पर जिनका निर्देश " प्रवनक" मुस्मृत प्रमाण, प्रापण,
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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