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विदेशोंमें प्राकृतका प्रचार। (ले० श्री० डा० बनारसीदास जैन, एम.ए., पी-एच.डी.) अपने व्यापक अर्थमें "प्राकृत " शब्द आर्य-भारतीकी एक अवस्था विशेषका नाम है जो प्राचीन आर्यभारती अर्थात् सस्कृत और वर्तमान आर्यमारती अर्थात् हिंदी, गुजराती आदिके मध्यवर्ती है। इसीलिये आर्य-भारतीकी मध्यम-अवस्थाकोभी प्राकृत कहते हैं। इसके साहित्यिक रूपके अदर एक दूसरेसे कुछ र विशेषताओंको लिये हुए अनेक भाषाए शामिल हैं। जैसे-पाली, अशोकी धर्मलिपियोंकी भाषा, जैन साहित्यकी भाषाए (अर्धमागधी, जैनमाहाराष्ट्री, जैन शौरसेनी), शिलालेखोंकी प्राकृत, सस्कृत नाटकॉम व्यवहत प्राकृत, गाथा सप्तशती, रावण वहो आदि काव्योंकी प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषा।
पूर्वकालमें प्राकृतका व्यवहार केवल जैनों और बौद्धों तक सीमित नहीं था। मामण पण्डितमी इसको प्रयोग, लाते थे जैसा कि उनकी रचनाओंसे सिद्ध होता है। पिछले कुछ वर्षोंसे भारतमें माइतका पठन-पाठन जैनों तकही सीमित होगया था। "प्राकृत" और "जैन " शब्दमें ऐसा धनिष्ठ सबध स्थापित होगया कि अब जैन कहने से प्राकृतका और प्राकृत कहनेसे जैनका स्वतः स्मरण हो जाता है।
यद्यपि प्राकृत कहलानेवाली भाषाओंमसे पाली अब पृथक् हो गई है और पठनपाठनमें उसने एक स्वतंत्र स्थान ग्रहण कर लिया है, तथापि वास्तवमें यह सबसे प्राचीन साहित्यिक प्राकृत है। इसमें प्राकृत अवस्थाके सभी लक्षण विद्यमान है । अतः पालाही वह प्राकृत है जिसने सबसे पहले मारतसे बाहर अपना पाव रखा। विक्रम संवत्से कई सौ वर्ष पूर्व बौद्ध धर्मके साथ यह लंका(सिंहल-) द्वीपको गई और इसने बडी उन्नति की । वहा इसमें विशाल साहित्यकी रचना हुई। विक्रमकी प्रथम शताब्दीम सिंहलराज वगामणीके समयमें पाली त्रिपिटकको यहा लिपि-बद्ध किया गया। लकाके बौद्ध भिक्षुओंमें पालीका दूसरा नाम मागधी अब तक प्रचलित है! लेकापालीका पठनपाठन बराबर होता रहा है। वहां इसका बही स्थान है जो भारतमें संस्कृतका है। लकाकी वर्तमान भाषा पर प्राकृतका इतना प्रभाव है कि लकाद्वीपके उत्तर भागकी भाषा आर्यभारतीके अदर गिनी जाती है।
भारतकी अपेक्षा लकाको तो कोई विदेश कहे या न कहे परतु ब्रह्मदेश तो विदेश कोटिमें समझाही जायगा। ब्रिटिश सरकारने कुछ समय तक ब्रह्मदेशको भारतका प्रान्त बना दिया था लेकिन भब वह फिर पृथक हो गया है । लकासे पालीने ब्रह्मदेशको गमन किया और वहां जाकर साहित्यिक वृद्धि की। बाभी अब तक इसका पठनपाठन चलता है। वहाँकी सामान्य भाषा पर पालीका कुछ
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