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श्री नीलकण्ठ पुरुषोचम जोशी।
व्यक्ति या समूह द्वारा तीर्थंकर प्रतिमाओ तथा जैन कथाओंसे अकित शिलापट्टोंको भन किये जानेके मई उदाहरण हमे प्राप्त है। कुछ पर तो लेख लिखे गये हैं और कुछको कॉट-छाँट कर वेदिकास्तम या सूचिकाओंमें परिवर्तित कर दिया गया है। हो सकता है कि अनुश्रुतिके कथनानुसार बौद्धोंकाही यह कार्य हो । स्वय जैनोंद्वाराही उनकी पूजनीय परन्तु मम मूर्तियोंका इस प्रकार उपयोग किया जाना-जैसा कि स्मिथ साहबका कथन है अधिक उपयुक्त नहीं जान पडता क्यों कि भारत वर्षौ खण्डित प्रतिमा या तो जल-प्रवाहित कर दी जाती है या किसी अन्य सुरक्षित स्थल पर रखी जाती है। उसका पुन:पयोग नहीं किया जाता।
३ व ४ के विषयमें निश्चितरूपसे कुछ नहीं कहा जा सकता । सभव है कि किसी समय स्तूप केवल ईंटोंकाही बना हो जैसे अशोककालीन बौद्ध स्तूप पाये जाते हैं। कुछ कालके अनन्तर शुग और कुषाणकालमें यह प्रस्तराकृत कर दिया गया हो।
दक्षिण भारतमें आचार्य भद्रबाहुके नेतृत्वमें जैन साधुओंकी एक बडी धार इधरके एक भयकर अकालसे बचने के लिये गई। श्रवणबेलगोला नामक स्थान पर भद्रबाहुकी मृत्यु हुई। चन्द्रगुप्तको छोड कर अन्य साधु दक्षिण पर्यटन एवं 'जिन विम्वों के दर्शनके लिये चल पडे । राजावली कथाम इसका उल्लेख मिलता है कि कुछ कालके अनन्तर सिंहसेनके पुत्र भास्कर नामक राजाने श्रवणबेल. गोलामें एक चैत्यालय बनवाया । सम्भवतः यह आचार्य भद्रबाहुको स्मृतिमेही बनवाया गया हो।२६
धारवाड जिलेसे प्राप्त कुछ शिलालेखोंसेमी अईतोंकी निषिदिकाओंका बनना प्रमाणित होता है। हम पहलेही देख चुके हैं कि निषिदिकाभी स्तूपकाही पर्यायवाची शब्द है।
उपर्युक्त विवेचनसे हम कह सकते हैं कि जैन स्तूपमी किसी समय भारतवर्षमें अच्छी संख्यामें उपस्थित थे परन्तु परवर्ती कालमें उनका निर्माण बदसा हो गया था। इसका एक कारण यहमी हो सकता है कि बौद्ध धर्मके समान जैन धर्म भारतमें चिरकाल तक प्रवल नहीं रहा। फलतः उसके प्रतीकोंका निर्माण या जीर्णोद्धारभी उतनी अधिक मात्रामें नहीं हो सका।
23. Smith- The Jain Stupa and other antiguities, p 3. २४, लखनऊ समहालयकी प्रतिमाएँ नं. J. 354, 355,J 356, J 357 4J 358. 24. Smith-The Jain Stupa and other antiquities p 3 २६ B. Lewis Rice--Inscriptions of Sravane Belgolap3 २७ Jarn Antiquary, Vol XII, P 102.