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________________ १८६ भ० महावीर-स्मृति-प्रथ। १. महावीरसे लगभग १३०० वर्षों पचात् बप्पभट्टीने स्तूप पर पत्थर लगवा कर उसका जीर्णोद्धार कराया। अब हम कंकाली टीलेके उत्खननसे प्राप्त सामग्रीकी सहायतासे उपर्युक्त बातोंकी मीमांसा कारनेका प्रयत्न करेंगे। १. मथुराका जैन-स्तूप देवनिर्मित कहा जाता था, यह बात वहाँसे प्राप्त एक शिलालेख भी सिद्ध होती है। इसका नाम 'वोद स्तुप था । झकाली टीलेसे जो आयागपट्ट तथा अन्य शिलाखण्ड प्राप्त हुए हैं, उनमेंसे कुछ पर छोटे आकारके स्तूप प्रदर्शित है।३० इनको देखकर हम वृहदाकार जैन-स्तूपोंके आकार प्रकारको कुछ कुछ कल्पना कर सकते हैं। हम अभी देव-निर्मित स्तूपका वर्णन करते समय देख आये हैं कि देवतामोंने तीन मेखलाओं वाले छत्र-त्रय, ध्वज, माला इत्यादिसे अकित स्तूपका निर्माण किया था। उपर्युक्त शिलापट्टों पर पाये जानेवाले स्तूपोंमें अधिक तर दो मेखलाओंसे युक्त हैं । केवल एक स्तूंर तीन मेखलाओंसे युक्त है । इस स्तूपका प्रदर्शनी महत्वपूर्ण ढगसे किया गया है। द्वार-तोरण पर अकित इस स्तूपका पूजन करनेके लिये सुपर्ण और किन्नर आ रहे हैं । छनत्रयी किसीभी स्तूप पर नहीं है। सारे एकही छत्रसे शोमित है। वस्तु शचीन कालमें छत्रावली तो तीर्थकर प्रतिमाओं परमी नहीं रहती थी । मध्यकालमै आकर छत्रावली की पद्धविका प्रारम हुआ। विविधतीर्थकल्पमी जिसमें स्तूपका वर्णन उधृत किया गया है विक्रम को चौदहवीं शतान्दिका ग्रन्थ है। अतएव, उसमें उल्लेखित छत्र-त्रींका पा-कृषाण या कुषाण कालीन जैन स्तूपों पर न पाया जाना कोई आश्चर्यकी बात नहीं । माला, देवमूर्तियों इत्यादिमी इन स्तूपों पर पाई जाती हैं। 'देवनिर्मित ' शब्दके कारण कुछ विद्वानोंने इस स्तूपको प्राक्-मौर्यकालीन माना है। परन्तु पुरातत्वसे इसकी पुटिमें कोई प्रमाण नहीं मिलता। यदि ऐसा होता तो मौर्यकालके वसायशय अवश्यही मिलते । परन्तु प्राप्त वस्तुओंमें लगमय सारी वस्तुएँ शुग, कुषाण या उसके शदके कालका हैं। हो सकता है कि देवो द्वारा मूल-स्तूर निर्माणवाली कथाके कारण तया स्तूपको दैवी शक्ति युक्त अथच महत्त्वपूर्ण दिखलाने के लिये उसके नामके साथ देवनिर्मित विशेषण जोड दिया गया हो। इसी अर्थमें 'देव' शब्द का प्रयोग हम उस कालके व्यक्तिगत नामोंके साथमी पाते हैं। कुषाण नृपति अपनेको 'देवपुत्र' कहते थे, अशोकका 'देवानां प्रिय' नाम तो प्रसिद्धही है। जैना और बौमि कुछ क्षगडा हुआ या इसकीभी पुष्टि पुरातत्वसे होती है। किसी तत्कालीन १९ Smith---The Jaun Stupa and other antiquitnes of Mathura.pl. VI, p. ka 30 Ibid plates, IX, XII, XV, XVII, XX Mathura Museum Guide Book ? Also Lucinor Nluscum exhibit No. J. 355 39 Ibid pl XV, page 22 २२. श्रीमागरमी-प्रेमी अमिनदन ग्रंथ, पृ. २४२.
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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