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श्री० नीलकण्ठ पुरुषोत्तम जोशी।
शिलाका वर्णन आया है ।१३ इस अनुश्रुतिके अनुसार तक्षशिला पर एक भयंकर तुरुष्क आक्रमण हुआ था, जिसके फलस्वरूप वह नगरी ध्वस्त कर दी गई । पुरातत्वविभाग द्वारा किये गये उत्खननसे यह सिद्ध होता है कि तक्षशिलाका प्राचीन कालसेही तीन भिन्न भिन्न स्थलों पर शिलान्यास हो चुका है। प्राचीनतम नगर आजके भीडके टीले पर था | दूसरा था तक्षशिलाका सिरकप नगर व तृतीय सिरसुख सिरकप नगर भारतीय-यूनानी राजाओं (Indo-Bactrian kings) द्वारा बसाया गया था। उसे ध्वस्त कर कुधाण नृपतियोने सिरसुखकी स्थापना की । डॉ० मोतीचन्द्रने यह दिखलानेका प्रयल किया है कि तक्षशिला पर 'जैन अनुभुतिमें कथित आक्रमण ईसाफी पहली शताब्दिमें कुषाणों द्वारा किया गया था | अर्थात् इस आक्रमणके फलस्वरूप सिरकप नगर नष्ट कर दिया गया । १४ इसी सिरकप नगरकी खुदाईमे हमें जैन मन्दिर व चैत्यके भग्नावशेष मिले हैं। इन चैत्यस्तूपोंकी वनावट मथुराके अर्ध चित्रोंमें अकित जैन स्तूपोंसे बहुत मिलती जुलती है ।१५ यह आक्रमण ईसाकी प्रथम शताब्दिमें हुआ होगा। इससे पूर्व वहाँ पर जैनोंका अस्तित्व रहा होगा जो अनुश्रुति द्वारा प्रमाणित है।
कनिष्कके समय पेशावरमेंभी एक जैन-स्तूप था। धार्मिक होने के कारण उसने स्तूपको एक पार प्रणाम किया परन्तु उसके प्रणाम करतेही स्तूप भम हो गया क्यों कि उसे राजाके प्रणाम करने का उच्च अधिकारही प्राप्त नहीं था ।१६ पुरातत्त्व इस जैन-स्तूपके विषयमें मौन है।
उत्तर भारतमें जैन स्तुतॊकी दृष्टि से मथुरा अत्यन्तही महत्वपूर्ण स्थल है। यहाँ पर जैन अनुभुतियोंके साथ पुरातत्वमी हमारी महती सहायता करता है । व्यवहारभाष्य और विविध-तीर्थ८ कलमें मथुराके 'देवनिर्मित ' स्तूपके विषयमें अनुश्रुतियाँ मिलती हैं। उनको देखने पर हम निन्नाकिन महत्वपूर्ण वातें जानते हैं:
१. देवगणने मथुरा, रत्नजटिव सुवर्णके स्तूपकी रचना की। वह देवमूर्तियों, ध्वज, तोरण, मालाएँ व छात्रयीसे अलकृत था । उसमें तीन मेखलाएँ थी। प्रत्येक मेखलामें चारो ओर देवमूर्तियाँ थी। इस स्तूपको देवनिर्मित कहा गया है। । २, इस स्तूपके कारण बौद्धों और जैनोंमें झगड़ा हुआ था। फलतः स्तूप पर बौद्धोका ? महीने तक अधिकारमी था ! अन्ततोगत्वा बैन विजयी हुए।
३. पार्श्वनाथके जन्म तक स्तूप अनावृत पडा या । पश्चात् इसे ईंटोसे ढंक दिया गया। १३. प्रभाषक चरित-मानदेव प्रवन्ध लोक २७ से आगे. १४. डा. मोतीचन्द्र-प्रेमी अभिनन्दन प्रय पृ. २४३. १५. Sir Jahn Marshall.Gurde to Tarila, (Calcutta 1918 p 72).
9€ GK Nariman Literary History of Sanskrit Buddhism, Bombay 1923. p 197 डॉ. मोतीचन्द्र द्वारा उद्धृत, मे. म. प्र. पृ. २३८.
१७. व्यवहारमाष्य, ५, २५.२८. १८. विविधकल्पसूत्र (स. जिनविजय ) पृ. १-१८