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मथुराका ‘देवनिर्मित वोद्व ' स्तूप। (ले. श्री. कृष्णदत्त वाजपेयी, एम. ए., पुरातत्व सग्रहालय, मथुरा) सन् १८९० ई० का वह दिन वडा भाग्यशाली या जब कि लखनऊ सग्रहालयके क्यूरेटर डा. फ्यूररको मथुराके प्रसिद्ध ककाली टीलेकी खुदाई करवाते समय जैन कलाकी विविध वस्तुओं के साथ एक अमिलिखित शिलापट्ट प्राप्त हुआ। यद्यपि दुर्भाग्यसे यह शिलापट्ट मनावस्था में मिला है
और उसके ऊपरकी मुख्य प्रतिमा तथा नाँचेका लाभग आधा दाहिना अश उपलब्ध नहीं हो सका तयापि जो अश प्राप्त हुआ है वह मथुरा क्या, सारे भारतमें जैन धर्म एव कलाकी प्राचीनता सिद्ध करनेके लिये एक महत्वपूर्ण अवशेष है । इस शिलाखह पर ई. द्वितीय शतीमें मथुरामें प्रचलित ब्राझी लिपि तथा प्राकृत भाषामें एक अभिलेख उत्कीर्ण है जिससे पता चलता है कि शक सवन ७९ (= १९७ ई० ) में भगवान् अर्हत्की प्रतिमा ' देवताओंके द्वारा निर्मित 'वोद नामक स्तूप प्रतिष्ठापित की गई। यह स्त्र आधुनिक मथुरा नगरके दक्षिण पश्चिममें वर्तमान कझाली नामक टीले पर स्थित था। ई० द्वितीय शतीमें इस प्राचीन स्तूपका आकार-प्रकार ऐसा भन्म तथा उसकी कला इतनी दिव्य थी कि मथुराके इस ' स्वर्णकाल' के कला-मर्मशोकोभी उसे देख कर आश्चर्यचकित हो जाना पडा । उन्होंने अनुमान किया कि यह स्तूप ससारके किसी प्राणीको कति न होकर देवोंकी रचना होगी। अतएव उन्होंने उसे 'देवनिर्मित स्तूप' की संज्ञा दी । यहाँ इस महत्वपूर्ण शिलापट्ट तथा उस परके लेखकी सक्षिप्त चर्चा की जाती है
प्रस्तुत शिलापट्ट एक बडी अर्हत् मूर्तिका नीचेका माग है और वहमी केवल आधेसे कुछ अधिक बचा है। शेष अंश नहीं मिल सका। डा० विंसेंट स्मिथका अनुमान है कि मुख्य प्रतिमा खड़ी रही होगी। (स्मिथ-'जैन स्तूप' पृ० १२.१३, फलक ६) परंतु चौकांके ऊपर चरणों कोई ऐसे चिन्ह अवशिष्ट नहीं हैं, जिनसे स्मिथके उक्त अनुमानको ठीक माना जा सके। इसके विपरीत प्रस्तुत पाषाण-खडके काफ़ी चौडे होनेसे कहा जा सकता है कि प्रधान मूर्ति पद्मासनमें बैठी हुई ध्यानमुद्रामें रही होगी! बचे हुए टुकडे के वीचमें कमल पुष्पके ऊपर निरन अकित है और उस पर एक चक्र रखा है। कमलके एक और शंख है, उसके दूसरी ओरभी इसी प्रकारका शख रहा होगा, जो टूट गया है। चक्रके बाई और दाहिने हाथोंमें कमलमालाएँ लिए हुवे तीन लियाँ खही है। वे अपने बाएँ हार्योसे वन सॅमाले है। ये वस्त्र गलेसे लेकर पैरों तक उनका सारा शरीर ढके हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि वे गलम तथा कमरके समीप सिले हुए हैं। तीसरी बीके पीछे हाथ जोडे हुए एक छोटी लडकी खड़ी है।
१. यह मूर्ति लसनक समहाल्यकी जैन दरीची में प्रदर्शित है। इसका नंवर जे. २० है।
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