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सन्त-साहित्य और जैन अपभ्रंश ग्रंथ । (ले. श्री० आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, एम.ए., शान्तिनिकेतन) सन् ईसवी की नवीं दसवीं शतब्दीके आसपास जो विशिष्ट धर्ममत उत्तर भारतमें प्रचलित हुआ उसका परवर्तीरूप हिंदी साहित्यका निर्गुण मत है। इसके विकास और उद्मवके अध्ययनके लिये अवभी पर्याप्त परिश्रम नहीं किया जाता और न सामग्रीही बहुत अधिक उपलब्ध हो सकी है। इस विषय के अध्ययन के लिये बौद्ध सहजयानी साधकोंकी रचनाए, नाय और निरञ्जनी सिद्धौके पद
और दोहे मादिको तो अव आवश्यक और अपरिहार्य समझा जाने लगा है, लेकिन अवभी उस विशाल जैन साहित्यकी ओर दृष्टि नहीं दी गई है जिसमें इस विषयके अध्ययन के लिये निश्चयही अनेक ग्रन्य मिलेंगे। अभी केवल दो तीन पुस्तकें ऐसी प्रकाशित हुई हैं जिनसे इस विद्या पर कुछ प्रकाश पडता है। जोइन्दुका परमात्मप्रकाश और योगसार नामक ग्रन्थ हालही श्री आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्याय महाशयके सम्पादकत्वमें बवईसे प्रकाशित हुए हैं। परमात्मप्रकाशकी हिंदी टीका प० दौलतरामने और योगसारका हिंदी अनुवाद प० जगदीशचद्र शास्त्रीने किया है। इससे पूर्वही कारजातं डा० हीरालाल जैनके सम्पादकत्वमे मुनि रामसिंह विरचित पाहुट दोहा प्रकाशित हो चुका है। इन पुस्तकोंमें उस युगकी तांत्रिक और शैव रचनाओंमें पाई जानेवाली अनेक विशेषताएं ज्यों की त्यो पाई जाती हैं | वाह्याचारका विरोध, चित्तशुद्धि पर जोर, समाधी भाव, स्वसवेदन आनदकी अनु. भूति, अक्षय-निरजन-ज्ञानमय-शिवकी प्राप्ति पर विश्वास आदि बातें इन रचनामामेभी पाई जाती हैं। उन दिनोंके नाथ पथियोंमें यह प्रसिद्ध सिद्धान्त प्रचलित था कि 'ब्रह्माण्डवर्तियत् किंचित्तत्पिण्डेऽप्यति सर्वथा', जिसे परवर्ती कालमें कदीर और नानक आदि सन्त महात्माओंने 'जोइ नोड अंडे, सोई ब्रह्मण्डे ' कहा था, उसकामी आमास इन ग्रन्थों में मिल जाता है। सहज साधी शरीरकोही सब सिद्धियोंका आश्रय माननेकी जो प्रवृत्ति थी उस पर मृदु कटासमी इनमें मिलता है । इस प्रकार के ग्रन्थ दसवीं शताब्दीके आसपास प्रचलित धर्मविश्वासोंके अध्ययन के बहुत महत्वपूर्ण साधन है । यह सत्य है कि जैन साधकोंका ‘परमात्मा' नाथ या निरजनी सापकोंके 'परमात्मा से थोडा भिन्न है। जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक आत्मा परमात्मा हो सकता है, कर्मबचके कारणही वह आत्मा है। तप और ध्यानके मार्ग पर चल कर वह 'परमामा' बन जाता है। ऐसे 'परमात्मा अनेक है। नाथपयो, शाक सेवक और निरजनी आदि सन्त अद्वैतवादी है। मानते हैं कि शानप्राप्तिके बाद जब कर्मबंध जन्म भावरण मुक्त हो जाता है तो जीव शिवमें मिल जाता है। परशुराम कल्प सूत्र १.५ में कहा गया है कि शरीरके कचुक (आवरण) धारण करन पर शिवही जीव हो जाता है और निष्कचुक होने पर जीवही शिव हो जाता है। परन्तु इससे न्यबहारम कोई विशेष अन्तर नहीं पडता । साधारण जनता इस पचडेमें नहीं पहना चाहती कि मुक्त