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श्री० हजारीप्रसादजी द्विवेदी।
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होनेके बाद यह आत्मा भनेक परमात्माओंमे से एक होकर बना रहेगा या किसी एकही परमात्मामें विलीन हो जायगा।
परवर्ती कालके हिंदी साहित्यमें जो देवालयों, तीर्थों और शास्त्रों के पठनकी ओरसे साधक को हटा कर अपनेही भीतर स्थित परमतत्वकी ओर देखनेका वरावर उपदेश दिया गया है वह बहुत सुदर और सरस दंगसे इन जैन साधकोंकी रचनाओंमें प्राप्त होता है । मुनि रामसिंह कहते हैं कि 'देवालयमें पाषाण है, तीर्थ, जल है और पोथियोंमें कल्पना-विलासी काव्य हैं-ये सब नश्वर हैं। जो फूलता है वह झडनेको वाध्य है, जो झडता है वह नष्ट हो जाता है, इधन बन जाता है
देवलि पाहणु तिस्थि जलु,
पुत्वई सन्वइ कच्चु । वत्थु जुदीसइ कुसुमियर इंधणु होसइ सव्वु ।
(पाहुड दोहा, १६१) 'अरे ओ योगी, जिसके हृदयमें वह एक देवता नहीं निवास करता जो जन्म और मरणसे परे है, वह परलोकको कैसे पा सकता है ?'
जोइय हियडइ जासु णवि
इक्कु ण णिवसइ देख। जन्मम्मरणविवनियर, किम पावइ परलोउ ।
(वही १६४) जोइन्दु कहते हैं कि देवता न तो देवालयमे हैं, न शिलामें हैं, न चदनादि उपलेपनोंमें हैं और न चित्रमें हैं। वह अक्षय-निरजन ज्ञानधन शिव तो 'समचित्त में निवास करता है।
देउ ण देउले ण वि सिलए णवि लिप्पडू ण वि चित्ति। अखठ णिरंजणु णाणमउ सिठ सठिउ समचिति ॥
(परमात्म प्रकाश १,१२३) ब्रह्मदेवने अपनी प्रतिमें इस दोहेमें आए हुए 'समचित्त' शब्दका लक्षणके रूपमें एक पुरानी कारिका इस प्रकार उद्धृत की है
सम सन्तुमितवणो
समसुदुक्खो पसंस गिदंसमो