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________________ १७३' श्री वासुदेव शरण अग्रवाल। हुआ है । जैन साहित्यमें अपभ्रंश भाषाके ग्रन्थोंके मानो भण्डार भरे हैं। अभी बीसियों वर्ष तो इस साहित्यको प्रकाशित करने में लगेंगे। लेकिन जोभी ग्रन्थ छप जाता है वहभी हिन्दी भाषाकी उत्पत्ति और विकासके लिए बहुतसी नई सामग्री हमारे लिए प्रस्तुत करता है। हिन्दी भाषामें एक एक शब्दकी व्युत्पत्ति खोज निकालनेका बहुत बड़ा काम अभी शेष है। व्याकरणकी दृष्टि से वाक्योंकी रचना और मुहावरोंके आरम्भका इतिहासमी महत्वपूर्ण है। इसके लिए अपभ्रश साहित्यसे मिलनेवाली समस्त सामग्रीको तिथि क्रमके अनुसार छाटना होगा और कोश और व्याकरणके लिए उसका उपयोग करना होगा। अभी पूरी तरहसे यह अनुमान लगाना कठिन है कि अपभ्रश साहित्यकी कृपासे हिन्दीका कितना अधिक उपकारसभव है। यह कहा जा सकता है कि अपने भूत कालसे जीवन, रहन-सहन और भाषाका जो उत्तराधिकार हमें मिला है उस पर अपभ्रंश कालका एक खोल चढा हुआ है । इतिहासकी अपभ्रशकालीन तहमें हमारी माषा और रहन-सहनके जो सूत्र है उनका उद्घाटन अपनेही विकासको समझने के लिए अत्यन्त आवश्यक है। आजसे पच्चीस वर्ष पहिले अपभ्रंश साहित्यकी इस बहुमूल्य निधिका किसीको ध्यान या परिचय न या लोकिन आज तो ऐसा जान पड़ता है कि हमारे साहित्यके कोठार इस नई सामग्रीके आ जानेसे माला-साल हो गए हैं। हिन्दी जगत्के बहुसख्यक विद्वानोंको और प्रकाशकों को अपने समय, परिश्रम और पनकी शक्ति इस ओर लगानी होगी तब कहीं हम अपनश साहित्यके इस सम्पत्तिको अधिकारमें ला सकेंगे। चौद्ध साहित्यसे भारतीय संस्कृतिको अपिरमित लाम हुआ । एक प्रकारसे बौद्ध साहित्यने भारतीय संस्कृतिको विश्वसस्कृतिके ऊचे आसन पर बिठा दिया । जैन साहित्यकी सहायतासेमी भारतीय संस्कृतिको नया प्रकाश प्राप्त होनेकी आशा और सम्भावना है। 'त एव कवयो लोके त एव च विचक्षणाः । येषां धर्मकथां गत्वं भारती प्रतिपद्यते ॥ धर्मानुबंधिनी या स्यात्कविता सैव शल्यते । शेषा पापाचवा यैव सुप्रयुक्तापिपजायते ॥' -श्री जिनसेनाचार्यः।
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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