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जैनधर्ममें जातिवादकी निःसारता ।
(ले० धी० चैनसुखदासजी शास्त्री, न्यायतीर्थ, जयपुर )
जाविभेद एक निःसार प्रथा है । इसने धर्मका गला घोट दिया है और मनुष्यकी बेहद परेशानियाँ बढार्थी है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रके मेदों एवं इनके उपभेदोंने मानवताको छिपाकर एक दूसरे के बीच में इतनी गहरी खाई खोद दी है कि अब उसको पाट देना आसान काम नहीं | ब्राह्मण केवल इसीलिये अपने आपको वडा समझता है कि वह उच्च जातिमें पैदा हुआ फिर चाहे वह कितनाही निकम्मा क्यों न हो । विद्वान्, कर्तव्यनिष्ठ एव परोपकारी शुद्रका अयोग्यसे अयोग्य ब्राह्मण, क्षत्त्रिय एव वैश्य केवल जातिके कारण तिरस्कार कर सकता है उससे बोलनेमी नफरत कर सकता है । उसका अन्न खाना और उससे सपर्क रखने की तो बात ही रहने दीजिये । इसीलिए किसी स्मृतिमन्धर्मे यह लिखा हुआ मिलता है ।।
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शूद्रात्रात् शूद्रसंपर्कात् शूद्रेणसह भाषणात् । इइ जन्मनि शूद्रवं मृतःश्वा चाभिजायते ॥
शुद्रकै अन्नसे, शुद्रके सपर्कसे, इतनाही नहीं शुद्रके साथ बातचीत करनेसेमी मनुष्य इस जन्ममें शुद्ध हो जाता है और वह भरनेके बाद कुत्ता हो जाता है।
प्राचीन कालमें उच्च वर्णके ोगोंने शूद्रोंको पददलित करने और सतानेमें कुछभी उठा न रक्खा था । उनको पठन पाठनका कोई अधिकार नहीं था । उनके कानमेंभी किसी तरह वेदमंत्र पह जाय तो इसकी बहुत बडी सजा थी । इसी लिये वैदिक वादभयमें कहा है :--
" श्रवेण चपुजतुभ्यां श्रोत्रपरिपूरणं
उच्चारणे जिह्वाच्छेद धारणे हृदयविदारणं
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अर्थात् शूद्र यदि वेदका श्रवण करले तो उसके कान शीशा और लाखसे भर देने चाहिये, उच्चारण करले तो उसकी जीभ काट देना चाहिये और यदि याद करले तो उसका हृदय विदारण कर डालना चाहिए। शूद्रोंके लिए यह कितनी बडी सजा है। इस सजाको सुनकर मनुष्य कांपने लगता है और उसका हृदय घृणा, दु:ख और लज्जासे नीचा हो जाता है। किसीभी विवेकी मनुष्य को ऐसी चीजें बरदास्त नहीं हो सकती 1 जिसके हृदय है, जिसमें मानवता है वह ऐसे बेहूदा विधानोंको कभी पसंद नहीं करेगा | इसलिये जातिवाद के इन कलक रूप विधानोंका जैनशालोंने घोर बिरोध किया और एक जारदस्त क्रांति कर डाली | जैनाके तार्किक ग्रथोमेभी इस जाविषादकी खूब खबर ली गई। दलीलों के द्वारा इसका एण्डन कर इसकी निःसारखा बतलाई गई है। जिससे भोले जी की श्रद्धालु
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