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जैनधर्म : विश्वधर्म ! • (ले. श्री. प्रो. हेल्मुथ फॉन ग्लास्नाप्प, पीएच. डी., बीन (जर्मनी))
जैनधर्म विश्वव्यापी है । अपने मतानुसार वह विश्वधर्म है । अधिकसे अधिक जीवोंक हितका दावा वह करता है। मनुष्यही नहीं, तिर्यञ्च, देव और नारकीभी जैन सिद्धान्तको स्वीकार करते हैं 1 उच्च वर्गके देव इस धर्मको स्वीकार सकते हैं । मैवेयकादिके देव तो जैनधर्मानुयायीही है । नरकवासी जीवमी सन्यासी हो सकते हैं। पहलीसे चौथी इन्द्रियवाले पर्याप्त विकसित तिन भिध्यावी होते हैं । असंशी पजेन्द्रिय जीवमी मिथ्यात्वमें फसे रहते हैं । हा, पञ्चन्द्रिय सन्नी तिर्यच अल्पाश या सर्वोशमें सम्यत्स्व प्राप्त कर सकते हैं । कयानों में ऐसे सम्यत्स्वी तिर्यञ्चोंके उदाहरण मिलते हैं । एक मेंढकने सम्यत्स्व प्राप्त किया था -- यह महावीरके समयको बात है । महावीर राजगृहोके उद्यानमें धर्मोपदेश दे रहे थे, उस समय उस मेंढकको पूर्वजन्मका वृतान्त स्मरण हो आया | वह भकिसे प्रेरित हो जिनेन्द्र महावीरकी वन्दनाके लिये चल पडा । किन्तु उसकी इच्छा पूरीभी न हुई कि वह हाथीके पैर तले दबकर मर गया । शुभ भावोंसे वह भरा और देव हुआ ! ' इस प्रकार निर्यातकके लिये नैनधर्मका द्वार खुला हुआ है !
___ अतः यह स्पष्ट है कि जैनधर्मको प्रत्येक मनुष्य धारण कर सकता है । यह प्रसिद्ध है कि भ. महावीर आर्य-अनार्यका भेद किये बिना सबको उपदेश देते थे । इसपर चुल्हर सा, ने लिखा है कि 'आजतक जैनधर्ममें माली, रंगरेज, आदि लोगोंको दीक्षित करनेकी वात असाधारण नहीं है।' बैन उपदेशक केवल हिन्दू संस्कार पाये हुये लोगोंमें जाते हों, यहही नहीं, बल्कि वे असस्कृत लोगोममी जाकर उपदेश देते और उन्हें शिष्य बनावे ये- यह बात जैनधर्मके शानों एवं उसके इतिहाससे स्पष्ट है । हेमचन्द्रजीने लिखा है कि राजा सम्प्रतिने वनवासी लो!में जैनधर्मका प्रचार करनेके लिये, साधुओंको असस्कृत प्रदेशी विहार करनेको सुविधा उपस्थित की थी। साधुजीवनोपयोगी आहार आदिवस्तुयें लोगोंसे सुलम हो, इसके लिये राजा अपने धर्म-उजुक उन देशोंमें साधु विहारके पहले भेज देता था। वे लोगोंको राजाज्ञा सुनाते और आहार विहारको सुविधा कराते थे।
जैन अपने धर्मका प्रचार भारतमें आकर बसे हुये शक्रादि म्लेच्छोंमें भी करते थे, यह बात 'कालकाचार्यकी कया से स्पष्ट है । कहा तो यहमी जावा है कि सम्राट अकबरमी बैनी हो गया था। आजमी जैन सघमें मुसलमानोंको त्यान दिया जाता है। इस प्रसगमें वुल्हर सा. ने लिखा था
१. समन्तभद्राचार्य, "रलकरंडर-श्रावकाचार" १२०. . George Büther, " Uber die Indische Sekte der Jaina," p. 36. ३. हेमचन्द्र परिशिष्ट पर्व" ८९-१०२.