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श्री० दलमुस मालवणिया।
माम करते उनपर विजय पाना यह कोई विजय नहीं किन्तु अपनी आत्म। पर विसर पानाही पण पिजरा यादरी गाने कार विजय पाना आसान है किन्तु अपने आरमा पर विजय पाना तो लग है। किन्तु यदि सामविजय हुवा तो विश्वविजय भी सहज है। उस किया कि उससे भी मित्र बन जाते हैं एसके विपरीत बाहरी भानुपर विजय पान पर मार दातीर चार प्रतिवर की परपरा बढती चली जाती है। विकमी हो जरा भी नी, र प्रतिवरको परपराकी वेल भी फूलेफले नहीं ऐसी विजय तो भगवान रे गों मिल गफनी ६ गार वह एं भात्म विजय हारा, इसीलिये तो भगवान्ने
"अपाणमेवजुमाहि किं ते जण बझुओ।
अपणामेवमप्पाणं जरत्ता सुभेहए ॥ रेन वादरी ने क्या कहता है, अभी करना है तो अपनी आत्माके साथही कर । अपनी मामाने पर विजय पा करही सच्चा नुस प्राप्त कर सकोगे।
प्रकार यम, गान सादि धार्मिक समझे जानेवाले अनुष्टानोंकीमी शुद्धि की । उन अनुधानों को आश्यामिक टिसे नया रूप दिया । उन्होंने कहा है कि यसमें बाहरी अमिका प्रयोजन नहीं ६.1 उपत्याएप अभि अपने पापकर्म स ईन्धनोंको डाल कर जलादो यही सच्चा या है। ब्रह्मचर्य ही सन्चा वार्य है। उसमें लान करके यदि पवित्रता प्राप्त होती है तो इधर-उधर भटकनेकी क्या आवश्यकता प्रभार प्रत्येक अनुशनीम आधामिकता लानेका उनका प्रथल था।
उन्होंने अपना उपदेश जनभाषा प्रास्तमही दिया । और इस प्रकार शुद्ध संस्कृत के आग्रह रसनेवाले ब्राह्मणोंम अपने उपदेशको सीमित न रस कर उसे सर्वसाधारणके समझने योग्य बनाया। पल यह हुआ कि सभी पढेलिपे या अनपढ उससे पूरा लाभ उठा कर अपनी उन्नतिके लिये वाझणमुसप्रेक्षी न बन कर वय प्रयत्नशील बन गये।।
अपने रायमें उन्होंने नारीकोभी महत्त्वका स्थान दिया। नारीभी चाहे तो पुरुपकीही तरह अपनी उन्नति आप कर सकती है ऐसा उपदेश भगवान्ने दिया। वहमी चाहे तो सर्वस्वका त्याग कर, अमचारिणी हो कर मुक्तिपथगामिनी हो सकती है ऐसा उपदेश उन्होंने दिया।
शुद्र जो कि समाजमें टीन हीन समझा जाता था उसेभी धार्मिक क्रियाकाण्डोंका स्वातन्त्र्य दिया। बदमी चाहे तो अपने त्याग और तपस्याफे द्वारा ब्राह्मणकाभी गुरु हो सकता है ऐसा उदार उपदेश भगवानका है । शान्त्रों में ऐसे कई उदाहरणभी मिलते हैं जिनसे पता चलता है कि उनका यह उपदेश समाजमें प्रविष हो चुका था । हरिकेशी जैसे चाडालमी जैन साधु हुए हैं जिन्होंने अपना और दूसरोंका उद्धार किया है।
वस्तुत. मगवानने तो जातिवादकाही प्रबल विरोध किया था। उनके मतमें किसीकी नाति ऊच या नीच नहीं है । मनुष्य अपने शुभ कमों के द्वारा उच्च होता है और अशुम कोंके द्वारा नीच होता है। नीच नाविमें जन्म लेकर भी यदि कोई त्याग और तपस्याका मार्ग अपनाता है तो वह उच्च है, पूज्म है और यदि कोई उच्च जातिमें पैदा होकरमी नीच कृत्य करता है - पापकर्ममें रत रहता है तब वही वस्तुतः नीच है, शूद्र है ऐसा भगवानका स्पष्ट मत है।