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भगवान्का धर्म।
(ले. श्री. प्रो. दलसुख मालवणिया, काशी) भगवान् महावीरने धर्मको सीधे और सरल रूपमें उपस्थित किया था। जहां वेदादिमें मौतिक संपत्तिको साधना वर्णित यी वहा भ० महावीरने आत्मिक सपत्तिकी साधना पर जोर दिया । धार्मिक अनुष्टानोंमें बिचवई करनेवाले पण्डों और पुरोहितों का कोई स्थान नहीं रखा । घेदका ऋपि यदि अपनी प्रार्थना सीधा प्राकृतिक देवॉको सुना सकता था तो भगवान् महावीरके मार्गका पथिकभी अपनी प्रार्थना आप ही कर सकता था । वस्तुतः उसे किसी औरको तो सुनाना है नहीं, वह तो अपने आत्माको हो अन्तर्मुख होकर समझाता है कि रे। आत्मन् उन्नति चाहते हो तो सर्व प्रथम बाह्य वस्तुका मोह छोडना होगा। इस प्रार्थनाको अपनी आत्मा जितनी मात्रामें सुन सकेगा और उसके अनुसार आचरण करेगा वो उतनो मात्रामें अपना उद्धार आपही होता जायेगा। यहाँ भगवानके धर्मको विशेषता है। उसमें स्वय भगवान् महावीर भी दूसरेका मला सब तक नहीं कर सकते जब तक मलाई चाहनेवाला जीव अपना मार्ग आर नहीं चुन लेता। भगवान् तो मार्ग देशक हे मार्गपर चलने वाले तो हम है। इस प्रकार भगवान् महावीरने जीव की उन्नति या अवनतिका कर्ता धर्ता जीवको ही करार दिया । बाहरी ताकत या सहायको महत्त्व नहीं दिया । जीवके भाग्यको बाहरी देवता या ई-बरके हाथसे लेकर स्वयं जीवको ही सौर दिया। अब वह चाहे तो मुक्त हो सकता है, देव हो सकता है या फिर मौजूदा स्थितिसे हीन भी हो सकता है। ___ जिन इन्द्रादि देवोंका मनुष्य पुजारी था वे इन्द्रादि देव तो मनुष्यकेभी पूजक हो गये। इतनी उच्च अवस्या पर ले जाकर मनुष्यको भगवान् महावीरने स्थापित किया। यह चमत्कार घरित कैसे हुआ ? जिस चीजको मनुष्यने अभी तक धर्मरूपसे पहचानाही न था उसे उन्होंने बताया । और यह ऐसीही दूसरी चीजको धर्म मान कर चलता था जो धर्म होही नहीं सकती यो, उससे मनुष्यका पिण्ड छुड़ाया, ऐसा करनेसेही मनुष्य स्वय देव बन गया और इन्द्रादि देव उसके सेवक बन गये। उन्होंने
"धम्मो मंगल मुविठ्ठ, अहिंसा संजमो नवो। देवा वि तं नमसंति,
जस्स घम्से सया मणो॥" 'धर्मही उत्कृष्ट मगल है। अहिंसा सयम और तप यह धर्म है। जिसका मन सदा ऐसे धर्ममें रत रहता है उसे देवतामी नमस्कार करते हैं।'
स्पष्ट है कि यज्ञ यागादिमें हिंसा करके, अपनी इच्छाओंको वेलगाम करके या जो कुछ मिला