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भ० महावीर स्मृति-ग्रंथ ।
एवं खु नापिणो सारं, जे ण हिंसइ किंचण |
अहिंसा समयं चेव, एयावन्तं वियाणिया । इस प्रकार महावीरने त्याग तथा तपस्याके आचरण पर तथा अहिंसा प्रतके पालन पर विशेष महत्व दिया है । येही भारतीय संस्कृतिके मूल आधार है । इन्हीं के ऊपर हमारी प्राचीन अय च मृत्युञ्जय सभ्यता आजमी टिकी हुई है। भारतीय धार्मिक परम्पराकाही निर्वाह हमें महावीरकी शिक्षामें मिलता है। उपनिषदोंमें प्रतिपादित सिद्धान्तोंको ग्रहणकर उन्होंने अपने मनका परिष्कार किया । महावीर तो अन्तिम तीर्थंकर है। उनसे प्राचीन तेईस तीर्थंकरोंने भिन्न भिन्न समयोंमें इस धर्म का भव्य उपदेश प्राणियों के हितार्थ किया । आजकळके इतिहासज्ञ व्यक्ति इन समस्त तीर्थंकरोंकी ऐतिहासिकतामें विश्वास नहीं करते, परन्तु प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथको ऐतिहासिक व्यक्ति माननाही पडेगा | श्रीमद भागवतके ५ स्कन्द (अ० ४-६ ) में ये मनुक्शी राजा नाभि तथा महारानी मरूदेवीके पुत्र बतलाये गये है। इनके सिद्धान्तका जो वर्णन यहा उपलब्ध होता हैं वह जैनधर्मकै सिद्धान्तोसे मेल रखता है। ऋषभकेही ज्येष्ट पुत्र मरत (या जब भरत ) के नामसे यह देश 'भारतवर्ष ' के नामसे विख्यात है। अतः ऋषभनाथको ऐतिहासिक व्यक्ति मानना नितान्त उचित है। इन्हीकी परम्परा महावीरके सिद्धान्तोंमें अभिव्यक्त होती हैं। हम महावीरले मतको उपनिपन्मूलक धर्मोसे पृथक् नहीं मानते । जिस प्रकार हिमालयमें स्थित मानसरोवरसे निकल कर विभिन्न जलधारायें इस मारत भूमिको आध्यापित तथा उर्वर बनाती है उसी प्रकार उपनिषद से विभिन्न विचार धारायें निकल कर इस देशके मस्तिष्कको पुष्ट तथा तुम करती हैं । भारतवर्ष पनपनेवाले समय धर्मवृक्षों के मूलमें विराजनेवाली है यही उपनिषत् ब्रह्मविद्या । और इसी ब्रह्मविद्या के आधारपर उगनेवाले जैन धर्मका यह कल्पद्रुम है जिसकी शीतल छायामें जाकर मानवमात्र अपना कल्याण साधन कर सकता है । महावीरका वह उपदेश कभी न भूलना चाहिए --
जर जाव न पीडेइ, वाही जावन वड्ढइ ।
जाविदिया न हार्वति, ताव धन्मं समायरे ॥ जबतक बुढापा नहीं सताता, जबतक व्याधिया नहीं बढतीं जबतक इन्द्रिया हीन-अशक्त नहीं धनती, तब तक धर्मका आचरण कर लेना चाहिए । उसके बाद होताही क्या है ? बहुतही ठीक है यह कथन, परन्तु इसका उपयोग तब हो सकता है, जब इस्को व्यवहारमें लाकर इसके अनुसार अपना जीवन बनाया जाय । विना क्रियाके ज्ञान चोझही है 'शान मारः क्रिया विनामहावीरके उपदेशका सकेत इसी ओर है।
• अमणपरम्परा मावन मारतीय विचारधाराकी एक स्वाधीन विशेषता है, जो अपमादि तीर्थस्रो द्वारा उपनिषकि स्वना कालसेमी पहलेसे प्रतिपादित होठी बाई । -का०प्र०