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________________ श्री० बलदेव उपाध्याय सकती है, वैसेही शरीरधारियोंका जीवन है । अतः थोडेसे समयके लियेमी प्रमाद मत करो। इस गाथाकी उपमा इतनी सुन्दर, सटीक तथा सरस है कि यह उपदेश चित्तपर गहरा प्रभाव जमाता है । स्मरण रखना चाहिए कि जीवनकी असारताकी शिक्षा हृदय पर इतनी चोट करती है कि कहा नहीं जा सकता। इस असारताको हृदयगम बनानेके लिए कुशके सिरेपर लटकनेवाले ओसबिन्दुकी उपमा बीही सुन्दर है । इसके भीतर स्वानुभूतिका पर्यास पुट है। म० महावीरने त्यागके महनीय गुणों की ओर सापोंकी दृष्टि फेकी है। आर्यसस्कृतिके मूल में यही सर्वातिशायी पदार्थ है-त्याग । वैदिक ऋषि कहते हैं-- तेन त्यक्तेन मुंजीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम् । त्यागसे धनको मोगो । किसीके घनको खसोटनेका लालच न करो। अन्य धर्मवालोंकी दृष्टि स्वधनको अपने कार्यमें लगाने के प्रति है। और आजकल मानव समाज दुसरेके धनको लूटपाट कर अपने स्वार्थमें लगानेकाही पक्षपाती है । आधुनिक ससारकी मनोवृत्तिका क्या यह सच्चा वर्णन नहीं है ? परन्तु भारतीय संस्कृतिका आधार यह नहीं है। मैंने अन्यत्र दिखलाया है कि भारतीय संस्कृति निन तीन तकारों-त्याग, तप और तपोवन पर आश्रित रहती हैं, उनमें 'त्याग' ही मुख्य तथा सर्वातिशायी है । महावीरस्वामी त्यागीकी बडी ही सुन्दर परिभाषा बतलाते हैं जे य ते पिए भोए, लद्धे विपिष्टि कुवइ । साहीणे चयइ मोए, से हु चाइ वि बुदइ ।। गृहस्थाश्रममें रहते हुएमी जो मनुष्य सुन्दर तथा प्रिय भोगोंको प्राप्त करकेभी उनकी ओर पीठ करता है अर्थात् उन मो!में अलिस रहता है; इतनाही नहीं, अपने अधीन होनेवाले भोगोंकोमी वह छोडता है, वही सचा त्यागी कहलाता है । अप्राप्त तथा अप्राप्य मोगोका परित्याग करने वाले कहाँ नहीं है। न मिलनेवाले अंगूरको खट्टा बतलानेवाली लोमडी किस समाजमें नहीं होती? परन्तु यह न्याक्ति त्यागी नहीं है । त्यागके लिये आवश्यक होता है-ज्ञानपूर्वक वस्तुमहाण यह पूर्ण ममताके परित्याग तथा पूर्ण वैराग्यके होने परही समद होता है। इसी प्रसगमें महावीरने इन्द्रियासक्रिका सुन्दर, दृष्टान्तोंके द्वारा वर्णन किया है वह नितान्त हृदयावर्जक है। एक एक इन्द्रियके वश पडा हुवा जीव अपना विनाश प्राप्त करता है। उस मनुष्यको क्या कहा जाय ? नो पाँच इन्द्रियोंके पाशमैं जकडा हुआ अपना हतजीवन व्यतीत करता है। महावीरकी शिक्षा, अहिंसाका स्थान बडाही ऊचा है। आजकल ससार हिंसाका क्रीडा निकेतन बना हुआ है। जिधर देखिए उधरही हिंसा देवीका प्रचण्ड ताण्डव लोगोंके हृदयमें उन्माद उत्पन्न कर रहा है। असारको इस घनघोर विनाशसे बचानेका एकही मार्ग है और वह है अहिंसा अतका पालन 1 ' अहिंसा का प्रयोग हम व्यापक अर्थसे कर रहे हैं ! प्राणियोंके प्राणनाशकोही इम हिंसा नहीं मानते, प्रत्युत हिंसाका क्षेत्र बहुतही व्यापक है | मनसा वाचा कर्मणा तीनोके द्वारा हिंसा निवृत्तिही महावीर स्वामीको मान्य है। महावीरके वचन हैं
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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