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________________ जैन धर्मकी विशिष्टता!, (ले० श्री० प्रो० बलदेव उपाध्याय, एम. ए., साहित्याचार्य, काशी) किसीभी धर्मकी विशिष्टता जाननेके लिये उसके आचारमार्गका अनुशीलन नितान्त आवश्यक है । आचार मार्गके प्रतिपादनमेंही तो धर्मका धर्मत्व निविष्ट रहता है । आचारही प्रथम धर्म है - माचारः प्रथमो धर्मः | भारतवर्षकी पवित्र भूमिपर धर्मका दर्शनके साथ सामञ्जस्य सदासे पूर्णरूपसे स्थापित किया गया है । दर्शनका मूल्य है सैद्धान्तिक, धर्मका महत्व है व्यावहारिक । धर्म वही है जिससे लौकिक उन्नति तथा पारमार्थिक फल्याणकी सिद्धि हो । भारतके विद्वान् धर्मकी महत्ता केवल ऐहिक जीवन के लिए ही नहीं मानते, प्रत्युत पारलौकिक कल्याणसे उसका सम्बन्ध है। महर्षि कणादके शब्दोंमे धर्मदा लक्षण है --- यतोऽन्युदय निःश्रेयससिद्धिः स धर्मः। पाश्चात्य देशोंमे धर्म और दर्शन, पारस्परिक उन विरोध रहा है, वहाँ धर्म दर्शनका बाधक रहा है, साधक नहीं, विरोधी रहा है, सहायक नहीं । परन्तु भारतवर्षमें धर्म और दर्शनमें गहरी मैत्री रही है। दोनोंका आविर्भाव इसी लिए हुआ है कि ये तीनों वापसे सन्तप्त जनताकी शान्तिके लिए, क्लेशवाल ससारसे निवृत्ति पानेके लिए, आनन्दमय मोक्षकी सिद्धि के लिये, सुन्दर तथा निश्चित मार्गका उपदेश देते हैं । दर्शन सिद्धान्त' का साधक है, तो धर्म व्यवहारका प्रतिपादक है। धर्म और दर्शनमें खूब घनिष्ट सामन्जस्य है- समन्वय है। बिना धार्मिक आचार द्वारा कार्यावित हुए दर्शनकी स्थिति निष्फल है और विना दार्शनिक विचारके द्वारा परिपुष्ट किये घरांकी सत्ता अप्रतिष्ठित है। धर्मके प्रासाद खड़ा करने के लिए दर्शन नींव रखता है। धर्मके सहयोगसे भारतीयदर्शनकी व्यापक व्यावहारिक दृष्टि है और दर्शनकी आधारशिला पर प्रतिष्ठित होने के कारण भारतीय धर्म आध्यात्मिकतासे अनुप्राणित है तथा वह अपनेको तर्कहीन विचारों तथा विश्वासोंसे बचानेमे समर्थ हुआ है। दुःखकी निवृत्तिकी खोजसे धर्म उत्पन्न होते हैं और दुःखकी आस्यन्तिक निवृत्तिका एकमात्र उपाय यही दर्शन है । धर्म और दर्शनके इस मञ्जुल समन्वयको भव्य झाँकी हमें जैनधर्ममें विशेषरूपसे दीख पडती है। जैन धर्मकी महती विशिष्टता है -- आचारपर विशेष आग्रह । धर्मके व्याख्याता तीर्थंकरके सामने सबसे महत्वपूर्ण समस्या है जगत्के दुःखका निवारण | जिघरमी दृष्टि डालिए उपरही दुःखोंका समुदाय तुमल तस्गोंके समान थपेक्षा मारकर हमारे जीवनसिन्धुको क्षुब्ध बनाये रहता है। इस दुःखोमसे आमाको बचानाही हमारे बीचनका ल्ल है। प्रत्येक प्राणीकी आत्मा अनन्तशक्ति, अनन्त ज्ञान, आदि महनीय गुणोंसे विशिष्ट है । महावीर मनुष्य के स्वातन्त्र्यके उपासक है। जिसमें अनन्तवीर्य भरा हुआ है, मला वह किसीका दास बन सकता है। परन्तु मनुष्य जगती तलपर सर्वत्रही दास बना हुआ है, कहीं वह बाह्य प्रभुकी दासता आवद्ध है तो कहीं अपनी वासनाओंकी आन्त १०३
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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