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________________ १०४ भ० महावीर स्मृति-पंथ। रिक दासतासें जकडा हुआ है। इस दासतासे आत्माको उन्मुक्त करनाही जैन शास्त्रका उद्देश्य है। कर्मके कारणही जीवको बन्धन प्राप्त होता है । कर्मही दासताका कारण है । जैन धर्म, कर्मका विवेचन वडाही सागोपाग है। समग्र कर्मका क्षय हो नानाही मोक्ष कहलाता है-छत्स्नकर्मक्षयो मोशः (तत्वार्थसूत्र १०१३) मोक्ष उत्पन होनेसे पहिले केवल-उपयोग (सर्वशत्व-सर्वदर्शित्व) की उत्पत्ति जैन शास्त्रमें अनिवार्य मानी गई है। कैवल्य के प्रतिबन्धक चार प्रकारके कर्म होते हैं -- मोहनीय, ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तराय । इन सदमें मोह सबसे अधिक बलवान है। अतः उसके नाशके वादही अन्य कर्मोका नाश शक्य होता है। मोइके प्रभुत्वकी महिमा सब धमोमें स्वीकार की गई है। योगदर्शनमे पञ्चविध क्लेशोंमें अविद्याही अन्य क्लेशोंमें आदिमहै, अविद्यालिता राग पाभिनिवेशाः क्लेशः ( योगास १२१३) अविद्याका अर्थ है--- अनित्य, अपवित्र, दु.ख तथा अनात्ममें क्रमश नित्य, पवित्र, सुख तथा आत्मबुद्धि रखना । पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्गको नित्यमानना, परसबीभत्स अपवित्र शरीरको पवित्र मानना, दुःखदायी जगत्के पदार्थोमें मुस्ख मानना तया शरीर, इन्द्रिय और मनको आत्मा मानना - अविद्या के प्रत्यक्ष दृष्टान्त हैं । यही चतुष्पाद अवियर क्लेशसन्तानका वीन है तथा विचार के साथ कर्माशयकी उत्पादिका है। पतञ्जलिका स्पष्ट कथन हैअविद्या क्षेत्रमुत्तरेसा प्रसुततनुविच्छिन्नोदाराणाम् ( योगसूत्र २४) बौद्धधर्मममी अविद्याको द्वादश निदानों में आदिम निदान माना गया है । बौद्ध मक्का मुख्य सिद्धान्त है --- प्रतीत्यसमुत्ताद जिसके अनुसार अविद्याही संस्कार, विज्ञान, नामरूप आदिके उदय द्वारा नरामरणको उत्पादिका है । ठीक इसीमाँति मोहनीय कर्मोका सर्वातिशायी प्रभुत्व होता है । विना इनके नाश हुए न अन्य कर्मोका नाश होता है और न तदुपरान्त केवलशानका उदयही होता है। अतः समग्र कोका आत्यन्तिक क्षय होनेसेही माक्ति होती है। आत्यन्त्रिकका अर्थ है-- पूर्ववद्ध कर्मका तथा नवीन कर्मके बोवनेकी योग्यता का अमाव । प्राचीन कर्मोके नाशके साथ साय नवीन काम बन्धनकी शक्ति न होने परही मोक्ष माना जा सकता है । आत्यन्तिक अथका यही अर्थ है । ___ आत्माको परमात्माके रूपमें परिणत कर देनाही जैन धर्मका लक्ष्य है । परमात्मप्रकाशके रचयिता जोगीन्दुके अनुसार आत्माके तीन स्तर होते हैं-(१) बहिरारमा, (२) अन्तरात्मा (३) परमात्मा । साधारण लोगोंकी दृष्टिमें यह शरीरही आत्मा है-यही हुआ बहिरामा; शरीर, मन तथा इन्द्रियसे भिन्न, परन्तु मोहनीय आदि काँके वशीभूत होनेवाला जीवही ढान्तरात्माके नाम पुकारा जाता है । यही अन्तरात्मा साधन विशेषकि द्वारा वशीभूत होकर परमात्मा बन जाता है। परमात्मा कोन है । इस आरमासे अतिरिक्त कोई अन्य पदार्थ नहीं । परमात्माका रूप देखिए -- जो गिय-माउ न परिहरह जो पर-भाव ण लेइ । जाणइ सयलु वि णिच्युपर सो सिड संतु हवेइ । (परमात्मप्रकाश १।१२) जो अपने भाष --- अनन्त ज्ञान आदि नहीं छोहता, और जो दूसरेके भावको महण नहीं करता, जो नियम जगत्त्रयमें वीनों कालमें विद्यमान रहनेवाले समस्त पदार्थोंको जानता है वही शान्त स्वरूप
SR No.010530
Book TitleMahavira Smruti Granth Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamtaprasad Jain, Others
PublisherMahavir Jain Society Agra
Publication Year
Total Pages363
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size9 MB
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