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'चक्रेण यः शत्रुभयंकरण जित्वा नृपः सर्व नरेन्द्रचक्रम् ।
समाधिचक्रेण पुनर्लिगाय महोदयो दुर्जय मोहचक्रम् ॥' अर्थात् --- 'जिस महाराजने शत्रुओंको भवदाई चक्रके प्रतापसे सर्वराजाओं के समूहको जीतकर, चक्रवर्ती पद प्राप्त किया था; पश्चात् साधुपदमें आत्मध्यानरूपी चक्रसे जिसका जीनी कठिन है ऐसे मोहके चक्रको जीत करके महानता प्राप्त की ।'
'यस्मिन्नभूद्राजनि राजचक्र मुनौ यादीधिति धर्मचक्रम् ।
पूज्ये मुहुः प्रांजलि देवचक्रं ध्यानोन्मुखे ध्वंसि कृतान्तचक्रम् ।। अर्थात् - 'निस भगवान्के आगे राज्यावस्यामें राजाओं का समूह हार्योंको जोडे हुए सामने खडा रहता था; साधु अवस्थामें दयामई किरणोंका घारी रत्नत्रयमई धर्मरूपचक्र वा हा गया। पूज्यनीय अहेत पदमें देवोंका समूह वार वार हाथ जोडे हुए उपस्थित रहा तथा चौये शुरू ध्यानको ध्याते हुए चार अघातिया कोका समूह नाश होकर मोक्षरमा आपके सामने खडी ही
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