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धरी शिविका निज-कंध मनोग । करो वन मांहिं निवास जिनंद,
धरे व्रत चारित आनंद-कंद ॥ गहे तहाँ अष्टम के उपवास,
गये धनदत्ततर्ने जु अवास । दियो पयदान महा सुखकार,
भई पण वृष्टि तहाँ तिह वार ।। गये फिर काननमांहिं दयाल,
धरो तुम योग सबै अघ टाल । तब वह धूम सुकेत अयान,
भयो कमठाचर को सुर आन । कर नभ गौन लखे तुम धीर,
जू पूरव वर विचार गहीर । करो उपसर्ग भयानक घोर,
चली बहु तीक्ष्ण पवन झकोर ॥ रहो दशहूँ दिश में तम छाय,
लगी बहु अग्नि लखी नहिं जाय । सुरुंडन के बिन मुण्ड दिखाय,
पड़े जल मूसल धार अथाय । तब पद्मावति कंत धनंद,
नये युग आय तहां जिनचंद ।