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तन-प्रभातनों मंडल सुहात,
भवि देखत निज-भव सात सात । मनुदर्पण-द्युतियह जगमगाय,
भवि-जनभव-मुख देखतसुआय ।। इत्यादि विभूति अनेकजान,
___ बाहिज दीसत महिमा महान । ताको वरणत नहिं लहत पार,
तो अंतरंग को कहै सार । अनअंत गुणनि-जुत करि विहार,
धरमोपदेश दे भव्य तार । फिर जोग-निरोधि अघाति हान,
सम्मेदथकी लिय मुकति-थान ॥ वृन्दावन वंदत शीश नाय,
तुम जानत हो मम उर जु भाय । तातें का कहीं सु बार बार, मन-वांछित कारज सार सार ।
घत्ताछंद जय चंद-जिनंदा आनंद-कंदा,
भव-भय-भंजन राजे है । रागादिक द्वंदा हरि सब फंदा,
मुकतिमांहि थिति साज है ॥ ॐ ह्रीं श्रीचन्द्रप्रभजिनेन्द्राय पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा