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मानो बांधत भव-सिंधु-सेत ॥ मानो सुपुण्य-धारा प्रतच्छ,
तित अचरजपन सुरकिय ततच्छ । फिरजायगहन सित तप करत,
सितकेवल-ज्योति जग्यो अनंत ।। लहि समवसरण-रचना महान,
जाके देखत सब पाप हान । जहें तरु अशोक शोभ उतंग,
सब शोकतनो चूरै प्रसंग ।। सुर सुमन-वृष्टि नभतें सुहात,
मनु मन्मथ तज हथियार जात । वानी जिन-मुखसौं खिरत सार,
मनु तत्त्व-प्रकाशन मुकर धार । जहँ चौंसठ चमर अमर ढुरंत,
मनु सुजसमेघझरि लगिय तंत । सिंहासन है जहँ कमलजुक्त,
मनु शिव-सरवरको कमल शुक्त ।। दुंदुभि जित बाजत मधुर सार,
मनु करम-जीतको है नगार । सिर छत्र फिर वय श्वेत-वर्ण,
मनु रतन तीन वय-ताप-हर्ण ।