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तहाँ दिव-ब्रह्म- ऋषीश्वर आय ॥ प्रबोध प्रभू सुगये निज धाम,
तब हरि आय रची शिवकाम । कियो कचलोंच पिराग- अरन्य,
चतुर्थमज्ञान लह्यो जग-धन्य ॥
धरौ तब योग छ मास प्रमान,
दियो शिरियंस तिन्हें इख दान ।
भयो जब केवलज्ञान जिनद्र,
अनंत
समौसृत-ठाठ रच्यो सु धनेंद्र ॥
तहाँ वृषतत्त्व प्रकाशि अशेष,
कियो फिर निर्भय थान प्रवेश | गुनातम श्रीसुख- राश,
तुम्हें नित भव्य नमैं शिव-आश ।।
धत्तानन्द
यह अरज हमारी, सुनि त्रिपुरारी,
जनम जरा मृत्यु दूर करो ।
शिव-संपति दीजे, ढील न कीजे,
निज लख लीजे कृपा धरो ॥
ॐ ह्रीं श्रीवृषभदेव जिनेन्द्राय महार्घं निर्वपामीति स्वाहा ।
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