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वडी उमंग से किया महोत्सव, मणिरथ मन हरपाय । युगवाहु को युवराजा पद, देके आनन्द पाय रे ।स।२५।। निज महल की छत पर बैठी, सव सखियन के साथ । दान मान आमोद प्रमोदे, करे प्रेम से वात रे ।स ।२६ । इस अवसर पर मणिरथ राजा, निज अटारी पर आय । भाई महले नजर फैलावे, सजन जन समझाय रे ।स ।२७। युगवाहु का महल प्रभु यह, वैठी उनकी रानी। दृष्टि न देवो रखो मर्यादा, नीति लेवो मानी रे ।स २८ । अज्ञानी सम तुम सब मुझको, क्या देते हो वोध । अहंकार वश मणिरथ राजा, मन में लाया क्रोध रे ।स।२६ | विषममार्ग से पैर रपटता, होता चकनाचूर । तद्वत् राजा देख पदमनी, भूला भान भरपूर रे ।स।३०। लीलावती की लीला होती, सहज ही लीला रूप । कागी देख उसे ललचावे, भँवर कमल अनुरूप रे ।स।३१ । अहो अहो यह रूपनिधि महा, स्वर्ग-मर्त्य-पाताल । क्या इस सम होगी जगनारी, यों चिन्ते भूपाल रे ।स ।३२ । हितकारी जन फिर भी वोले, उचित नहीं यह कार । भाई नारी को निरखो राजवी, विगड जाय संसार रे ।स ।३३ । विषमय विषधर जानो सदा ही, परनारी का रूप ।
अन्य जहर की मिले औषधि, यह है जहर अनूप रे ।स।३४ | विरत रहो परनारी से सब, यह सुख क्षणभंगूर | करुणा-मैत्री-प्रज्ञा वधू से, भोगो सुख भरपूर रे ।स।३५ । निर्मल दीप विवेक तभी तक, फैलाता परकाश । गृगनयनी के नयन-वाण से विंधे न हृदयाकाश रे ।स।३६ । 'लज्जा भय से हटा राजवी, मन में बस गया रूप । महामोह वश हुआ राय यों, मानो पड़ा भव कूप रे ।स।३७ । जो मैं इसका संग न पाऊं, विरथा जन्न गंवाऊं। सरेस झाइ सम निष्फल चोही, सांस ले उम्र दितांऊ रे ।स १३८ । संकल्प वश हो चिन्ते राजा, भाई दूर हटाऊं। लालच दे इसको ललचाऊं. विलास सुख को पाऊस1६1