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सती मयणरेहा मंगलाचरणः
दोहा शांतिनाथ प्रभु-चरण में, वन्दन बारम्बार । कथा मयणरेहा लिखू, शील सत्य आधार | 19 ।। तर्ज-म्हारी रस सेलडियाँ, आदि जिनेश्वर कीनो पारणो सती मयणरेहाजी, पति निरतारी, तारी आतमा | ध्रुवपदम् ।। देश मालवा शहर सुदर्शन, शोभायुत है स्थान । मणिरथ राजा राज करै वहां, राजनीति का जान रे ।स। १ । युगवाहु है लघुभ्राता तस, प्रेमपात्र गुणवन्न । भावी राजा इसे वरूं मैं, यों चिन्ते राजन्न रे ।सती ।२ । मयणरेहा है रानी उसकी, शील गुणों की खान । शुद्धश्राविका समकितधारी, पतिव्रता धर्म-निधान रे।स।३ । क्षुद्रबुद्धि नहीं रखे श्राविका, रूपे रंभ समान । शशी सम सौम्य और लोकप्रिय, सत्य क्षमा की खान रे ।स ।४ । डरे पाप से, निडर सभी से, निर्मल सरल स्वभाव । साहसपन लज्जा से दीपे, दया तणो चित्त चाव रे ।स।५ | समता भावित निर्मलदृष्टि, गुण से राखै राग । धर्मकथा नित करे प्रेम से, धर्म धरे महाभाग रे ।स।६ । जातिवन्त कुलवंत सतीजी, दीर्घ दृष्टि की धार । अविरुद्ध अर्ध की सदा उपासक, विनयवंत गुणधार रे ।स।७ । परहित में दत्तचित्त महासती, लव्य लक्ष गुणवान । प्रतिमा है इक्कीस गुणों की, धर्म मर्म की जान रेस। | नहीं शील से डिगे डिगाई, ज्यों गिरि मेरु अडोल। सागर सम गंभीर सतीजी, कहै न किसी की पोल रेस11