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वैधव्य भोगना पड़े तो विधवा-शिक्षा । तात्पर्य यह है कि स्त्री को जिन अवस्थाओं में से गुजरना पड़ता है, उन अवस्थाओं में सफलता के साथ निर्वाह करने की उसे शिक्षा मिली थी। यही शिक्षा समूची शिक्षा कही जा सकती है, स्त्रियों को जीवन की सर्वाङ्ग उपयोगी शिक्षा मिलनी चाहिए ।
स्त्रियों की सब प्रकार की शिक्षा पर ही तो संतान का भी भविष्य निर्भर है। आज भारत के वालक आपको देखने में, ऊपर से भले ही खूबसूरत दिखलाई देते हों, पर उनके भीतर कटुकता भरी पड़ी है। प्रश्न होता है, बालकों में यह कटुकता कहां से आई ? परीक्षा करके देखेंगे तो ज्ञात होगा कि वालक रूपी फलों में माता रूपी __ मूल में से कटुकता आती है। अतएव मूल को सुधारने की आवश्यकता है। जव आप मूल को सुधार लेंगे तो फल आप ही सुधर जाएंगे।
___ माता रूपी मूल को सुधारने का एकमात्र उपाय है, उन्हें शिक्षित बनाना। यह काम, मेरा खयाल है, पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों से बहुत शीघ्र हो सकता है। उपदेश का असर स्त्रियों पर जितना जल्दी होता है, उतना पुरुषो पर नहीं होता।
पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में त्याग की मात्रा अधिक दिखाई देती है। पुरुष चालीस वर्ष की अवस्था में विधुर हो जाय तो समाज के हित-चिन्तकों के मना करने पर भी, जाति में तड़ डालने की परवाह न करके दूसरा विवाह करने से नहीं चूकता | दूसरी तरफ उन विधवा बहिनों की ओर देखिए, और देखिए, जो वारह-पन्द्रह वर्ष की उम्र में ही विधवा हो गई हैं। वे कितना त्याग करके आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करती हैं! क्या यह त्याग पुरुषों के त्याग से बढ़कर नहीं है ?