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मजदूत रहते हैं। शिक्षित स्त्रियां इन कार्यों को करने में बहुत लज्जा का अनुभव करती हैं। उनकी शिक्षा में गृहविज्ञान भी एक आवश्यक विषय होना चाहिए।
बहुत पहिले श्री मुंशी का स्त्रीशिक्षा पर एक लेख प्रकाशित हुआ था। इसमें स्त्रीशिक्षा के विभिन्न पहलुओं पर गम्भीरता से विचार किया गया था। उन्होंने कहा है :
_ 'संसार के प्रत्येक राष्ट्र तथा मानव जाति के लिए स्त्रीशिक्षा का प्रश्न बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। प्रत्येक देश की उन्नति और विकास एवं संसार का उत्कर्ष बहुत अंशों में इस महत्त्वपूर्ण समस्या को सन्तोषपूर्वक हल करने पर ही अवलम्वित है।'
इस समस्या को हल करने का प्रथम महत्त्वपूर्ण प्रयल उनकी शारीरिक विकास की योजनाओं को कार्यान्वित करना है। स्त्रियों के शारीरिक व मानसिक विकास के लिए उचित शिक्षा का प्रबन्ध करने के लिए देश के विभिन्न भागों में शिक्षा संस्थाएं स्थापित की जानी चाहिए, जहां पर पुस्तकीय शिक्षा के उपरांत चरित्र-निर्माण और शारीरिक विकास की ओर विशेष लक्ष्य दिया जाय | जो राष्ट्र इस प्रकार की संस्थाएं स्थापित नहीं कर सकता, उसे अपने उत्कर्ष का स्वप्न देखना भी असम्भव है। जिस देश की स्त्रियां कमजोर व निर्बल हों, उनसे गुणवान् और शक्तिमान् संतानों की क्या आशा की रखी जा सकती है? जिन महिलाओं ने शिक्षा के साथ-साथ अपने स्वास्थ्य को सुधारने का प्रयल किया, उनकी संतान भी निश्चित रूप से होनहार होगी और उन्हीं से तो राष्ट्र का निर्माण होना है। शरीर से स्वस्थ होने पर ही नारियां उच्च शिक्षा एवं उत्कृष्ट विचारों से साहसपूर्वक राष्ट्र की राजनैतिक और सामाजिक समस्याओं को हल करने की क्षमता रखेगी। साथ ही साथ आदर्श पत्नी और आदर्श माता बन कर अपना सामाजिक कर्तव्य पूर्ण करने में समर्थ होंगी। पुरुष स्त्री का आजन्म साथी है, सुख-दुःख में सदैव अपनी पली के प्रति अपनत्व की भावना रखता है। स्त्री का भी पूर्ण कर्त्तव्य है कि सभी परिस्थितियों में पुरुष की सदैव सहायिका रहे । उसमें उतनी योग्यता होनी चाहिए कि पति की प्रत्येक समस्या पर गम्भीरता से वह विचार कर सके। तभी पति-पत्नी दोनों सच्चे सहयोगी और प्रेमी सिद्ध हो सकेंगे। स्त्री की शिक्षा इसी में पूर्ण नहीं हो जाती कि बीजगणित या रेखागणित का प्रत्येक सवाल शीघ्र हल कर सके या रसायन शास्त्र में अच्छी योग्यता रख सके, उसकी शिक्षा तो गृहस्थ जीवन को स्वर्ग बनाने में है। पति-पली जहां जितने प्रेम से रह कर एक दूसरे के कार्य में रुचि रखेंगे, शिक्षा उतनी ही सफल सिद्ध होगी। उनकी शिक्षा तभी पूर्ण होगी. जब वे पराने सभी उच्च विचारकों तथा कार्य-कर्ताओं के कार्यों का भलीभांति अध्ययन करके अपने दृष्टिकोण से विचार कर, अपने आदर्शों का उनके साथ तुलनात्मक रूप से विचार कर सकें, प्रत्येक इतिहास के पात्र के कार्यों और चरित्रों पर दष्टि डाल कर समय और परिस्थितियों को देखकर उनके समान वनकर अपने व्यक्तित्व का निर्माण कर सकें। उन्हें ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जिससे वे नियति के विपरीत भीषण आघातों से, जो सदैव पश्चाताप और शोक का पथ प्रदर्शन करते हैं, बचकर नूतन साहस से अपने कर्तव्य
और पथ की ओर बढ़ती चली जाएं। उन्हें कभी निराशा अनुभव नहीं करनी चाहिए। सफलता और असफलता का जीवन में कोई महत्त्व नहीं। महत्त्व तो मनुष्य की प्रतिभा और प्रयत्नों का है।
___हृदय में सहानुभूति दया, प्रेम, वात्सल्य आदि गुणों का विकास ही शिक्षा का उद्देश्य हो। उन्हें यह सिखाना चाहिए कि पीड़ा और शोक आंसू बहाने और निःश्वासों के द्वारा कम नहीं हो सकते। जीवन में वस्तुओं के प्रति जितनी उपेक्षा की जायेगी, वे वस्तुएं उतनी ही सुलभ और सुखमय हो जाएंगी। शिक्षा मानवता का पाठ
वाली हो। पीड़ा आखिर पीड़ा ही है। वह जितना हमें दुःखी करती है, उतनी ही दूसरों को। जितना हम . .५. चाहते हैं, उतने ही दूसरे । हमारे हृदय और दूसरों के हृदयों में कोई मौलिक भेद नहीं। सहानुभूति की ।