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भावना अपने परिवार तक ही सीमित नहीं होनी चाहिए। जितना विशाल हृदय बनाया जा सके, उतना ही बनाकर अधिक से अधिक लोगों में आत्मीयता का अनुभव करना ही शिक्षा का उद्देश्य हो । विश्व में ऐसे कई अवोध वालक, सरल महिलाएं और निरपराध मनुष्य हैं, जिन्हें दुनियां में कोई पूछने वाला नहीं। वे किसी के कृपापात्र नहीं। ऐसे लोगों के प्रति प्रेम और सहानुभूति का सम्वन्ध रखना ही ईश्वर में सच्ची श्रद्धा रखना है। ऐसे ही लोग भगवान् को प्रिय और उसके कृपापात्र होते हैं। अगर शिक्षा का रुख बीजगणित तक ही सीमित न रह कर इस तरफ हो तो विश्व में सुख, सन्तोष और आत्मीयता फैल सकती है।
वालिकाओं को अपने चरित्र-निर्माण की भी शिक्षा दी जानी चाहिए। लज्जा, विनय, शिष्टता सदाचार, शील आदि उनके आवश्यक गुण हैं। इनसे गृह-जीवन में शांति और प्रेममय वातावरण रहता है। माताओं को चाहिए कि वालिकाओं को ऐसे संस्कार दें जिनसे जीवन में ये गुण स्वाभाविक हो जाएं। उनका हृदय कोमल और दयार्द्र होना चाहिए। दीन, दुखियों और रोगियों की हालत देखकर उनमें कुछ सेवा और अपनत्व की भावना होनी चाहिए। गृहागत अतिथि या सम्बन्धी के उचित स्वागत की योग्यता भी होनी चाहिए।
भारतवर्ष में स्त्रीशिक्षा की बहुत दुर्दशा है। मुश्किल से पांच प्रतिशत महिलाएं यहां साक्षर होंगी। जापान में ६६ प्रतिशत और अमेरिका में ६३ प्रतिशत लड़कियां शिक्षित हैं। इसी प्रकार अन्य बहुत से देशों में लड़कों की शिक्षा से लड़कियों की शिक्षा पर अधिक जोर दिया जाता है किन्तु भारतवर्ष में स्त्री शिक्षा पर जोर नहीं दिया जाता है। इसके लिए बहुत कम व्यय किया जाता है। हमारे भाइयों का लक्ष्य बालिकाओं की शिक्षा की ओर जाता ही नहीं। शिक्षा के अभाव में नारियों की हालत आज अत्यन्त दयनीय है। वे अपना समय गृहकलह और व्यर्थ की टीका टिप्पणी में लगाती हैं। छोटे-छोटे बालकों पर भी वैसे ही संस्कार पड़ जाते हैं। माता के जैसे संस्कार और कार्य होंगे उनका असर तत्काल बच्चे पर पड़ेगा। अतएव स्त्रियों का शिक्षित होना जरूरी ही नहीं वरन अनिवार्य है शिक्षा पाए विना नारियां अपना कर्त्तव्य पूर्ण रूप से निभाने में सफल न हो सकेंगी। ऋषभदेव की पुत्री ब्राह्मी ने ही भारतवर्ष में शिक्षा का प्रचार किया था । नारियों को इस बात का पूर्ण ज्ञान व अभिमान होना चाहिए कि हमारी ही वहिन ने भारत को शिक्षित बनाया था। उस देवी के नाम से भारतीय लिपि अव भी ब्राह्मी लिपि कहलाती है। ब्राह्मा का नाम सरस्वती है और अन्य ग्रन्थों में उसे ब्रह्मा की पुत्री बतलाया है। ऋषभदेव ब्रह्मा थे और उनकी पुत्री ब्रह्मा कुमारी थी। इस प्रकार दोनों कथनों से एक ही बात फलित होती है। जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि ऋषभदेव की दूसरी पुत्री सुन्दरी ने गणित विद्या का प्रचार किया था।
संसार में स्त्री-पुरुष का जोड़ा माना गया है। जोड़ा वह है जिसमें समानता विद्यमान हो। पुरुप पढ़ा लिखा और शिक्षित हो और स्त्री मुर्खा हो तो उसे जोड़ा नहीं कहा जा सकता है। आप स्वयं विचार कीजिये कि क्या वह वास्तलिक और आदर्श जोड़ा है ?
पहले यह नियम था कि पहले शिक्षा और पीछे स्त्री मिलती थी। प्रत्येक बालक को ब्रह्मचर्य-जीवन व्यतीत करते हए विद्याभ्यास करना पड़ता था परन्त आजकल तो पहिल स्त्री और पीछे शिक्षा मिलती है। जहा यह हालत है, वहां सुदृढ़ शारीरिक सम्पत्ति से सम्पन्न प्रकाण्ड विद्वान् कहां से उत्पन्न होंगे? . रत्री शिक्षा का तात्पर्य कोरा पुस्तक ज्ञान नहीं है। पुस्तक पढ़ना सिखा दिया और छुट्टी पाई, इससे काम
लगा। कोरे अक्षर-ज्ञान से कुछ नहीं होने का, अक्षर ज्ञान के साथ कर्तव्य ज्ञान की शिक्षा दी जायेगी सना शिक्षा का वास्तविक प्रयोजन सिद्ध होगा।