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और शिष्य दोनों उद्योग करना छोड़ दें और होनहार के भरोसे बैठ रहें तो परिणाग क्या आएगा, यह समझने में कठिनाई नहीं हो सकती। इससे यही परिणाम निकलता है कि कर्ता के विना कर्म होना शक्य नहीं है। मिट्टी में घड़ा बन जाने की शक्ति अवश्य है, पर कुम्भकार के विना घड़ा वन नहीं सकता। भवितव्यता पर निर्भर रह कर अगर बहिनें चूल्हे के पास आटा रख दें तो रोटी बन सकती है ? मैं समझता हूं, भवितव्यता के भरोसे वैठकर सारा संसार यदि चार दिन के लिये अपना-अपना उद्योग छोड़ दे तो संसार की ऐसी दुर्गति हो कि जिसका ठिकाना न रहे। संसार में घोर हाहाकार मच जायेगा। इस प्रकार भवितव्यता का सिद्धांत अपने-आप में पोच ही नहीं है वरन् वह मानव-समाज की उद्योगशीलता में बड़ा रोड़ा है और लोगों को निकम्मा एवं आलसी बनाने वाला है। यही सव सोच कर सकडाल ने भगवान् महावीर का सिद्धान्त भक्तिपूर्वक स्वीकार कर लिया।
ज्यों ही गोशालक सकडाल के पास पहुंचा, सकडाल ने समझ लिया कि मेरे यह पूर्वगुरु फिर अपना सिद्धान्त मनवाने आये हैं। सकडाल ने गोशालक की तरफ से मुंह फेर लिया। उसके ललाट पर बल पड़ गये। गोशालक मूर्ख तो था नहीं। वह बड़ा बुद्धिमान् और विचक्षण था । वह सकडाल का अभिप्राय ताड़ गया |
मित्रों! यह विचारणीय है कि गोशालक सकडाल का पूर्वगुरु था। फिर उसने अपने पुराने गुरु के प्रति ऐसा व्यवहार क्यों किया? इसका कारण यह है कि सकडाल को विश्वास हो गया था कि गोशालक का सिद्धान्त मेरे लिए और जगत् के लिए अकल्याणकारी है। ऐसे सिद्धान्तवादी के प्रति विनय-भक्ति प्रदर्शित करना उसके सिद्धान्त को मान देना है। इससे बड़े अनर्थ की सम्भावना रहती है। गोशालक के प्रति सकडाल के व्यवहार का यही कारण था। इसी का नाम असहयोग है।
जिस प्रकार धर्म-सिद्धान्त के लिये मनुष्य को असहयोग करना आवश्यक है, उसी प्रकार लौकिक नीतिमय व्यवहारों में अगर राज्यशासन की ओर से अन्याय मिलता हो तो ऐसी दशा में राज्यभक्तियुक्त सविनय असहकार असयोग—करना प्रजा का मुख्य धर्म है। वह प्रजा नपुंसक है जो चुपचाप अन्याय को सहन कर लेती है और उसके विरुद्ध चूं तक नहीं करती। ऐसी प्रजा अपना ही नाश नहीं करती परन्तु उस राजा के नाश का भी हेतु बन जाती है, जिसकी वह प्रजा है। जिस प्रजा में अन्याय के पूर्ण प्रतिकार की सामर्थ्य नहीं है उसे कम-से-कम इतना तो प्रकट कर ही देना चाहिए कि अमुक कानून या कायदे हमारे लिए हितकर नहीं है और हम उसे नापसंद करते हैं।
प्रजा को बिगाड़ना राजनीति नहीं है। राजा वही कहलाता है जो प्रजा की सुव्यवस्था करे जो राजा प्रजा की सुव्यवस्था नहीं करता और प्रजा को कुव्यसनों में डालता है, जो अपनी आमदनी बढ़ाने के लिये आवकारी जैसे प्रजा के स्वास्थ्य को नष्ट करने वाले विभाग स्थापित करता है, फिर भी प्रजा अगर चुपचाप बैठी रहती है तो समझना चाहिए वह प्रजा कायर है।
प्रजा के हित का नाश कनरे वाली बातें कानून के द्वारा रोकने वाला राजा, राजा कहलाने योग्य नहीं है।
राजा के भय से अपकारक कानून को शिरोधार्य करना धर्म का अपमान करना है। धर्मवीर पुरुष राजा के अपकारक कानून को ही नहीं ठुकराता, पर राजा और प्रजा के किसी खास भाग द्वारा भी अगर कोई ऐसा कानून बनाया गया हो तो उसे भी उखाड़ फेंकने की हिम्मत रखता है।
कोणिक राजा द्वारा हार और हाथी लेने चेडा श्रावक ने क्या किया था, जरा इस पर दृष्टि डालिए। उसने राजा और राज्य के विरुद्ध इस अन्याय का प्रतिकार करने के लिए लड़ाई छेड़ दी। धर्मवीर थोथी शान्ति । ., नहीं करते। वे जानते हैं, थोथी शांति से सत्य का खून होता है।