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प्रायः आजकल के श्रावक थोथी शांति के हिमायती होते हैं। 'अरे कहीं लड़ाई हो जायगी, दंगा मच जायेगा, लोग अपने विरुद्ध हो जाएंगे, ऐसा हो जायगा, वैसा हो जायगा, हमें तो चुप्पी साध लेनी चाहिए, विगाड़ हो तो अपना क्या सुधार हो तो अपना क्या' इत्यादि कहा करते हैं। यह उनकी वास्तविक शान्तिप्रियता नहीं है। यह शान्ति का ढोंग है और अन्दर धधकती हुई आग फैलने में सहायक होना है।
सम्भव है, आप मेरी बात का रहस्य न समझें हों। यदि ऐसा ही हो तो यह दोष आपका नहीं, मेरा है क्योंकि मेरी तपस्या अब तक इतनी निर्बल है कि मैं आपको समझाने में असमर्थ हो जाता हूं।
मेरे कथन का आशय यह है कि मनुष्य को हर हालत में सत्य का पालन करना चाहिए। सत्य का पालन न करने वाले के कार्य, चाहे वे कैसे ही हों, नाटक के सदृश हैं। सत्य का पालन करने के लिए आपको चाहिए कि अगर मुझ में कोई पालिसी नजर आती हो तो मुझसे अलग रहें और मुझे चेतावें। ऐसा न करने से साधु भी असाधु बन जाता है। सत्य के बिना कभी कोई वस्तु टिक नहीं सकती। अरणक के जहाज में हजारों आदमी बैठे थे। देवता ने कहा -'तू असत्य बोल, नहीं तो जहाज उलटता हूं।' पर अरणक अटल रहा। वह असत्य न बोला। अगर अरणक असत्य बोलता तो जहाज टिक सकता था? सत्य ही के प्रभाव से जहाज बचा था।
___ सारी राजगृही नगरी सुदर्शन पर हंसती थी, पर सुदर्शन ने किसी की परवाह न की। उसे सत्य पर भरोसा था और सचमुच ही सत्य की विजय हुई। सुदर्शन पर हंसने वालों को अपने ही ऊपर हसने का अवसर आते देर न लगी।
कौरवों और पाण्डवों के युद्ध में महाविचक्षण भीष्म और द्रोण आदि दुर्योधन की तरफ थे। वे जानते थे कि दुर्योधन का पक्ष न्यायसंगत नहीं है और युधिष्ठिर न्यायपक्ष पर है। पर वे लोग दुर्योधन का अन्न खाते थे, इसलिए उसके विरुद्ध शस्त्र उठाना अनुचित समझते थे। फिर भी उन्होंने अपने हृदय के भाव स्पष्ट रूप से विना हिचकिचाहट दुर्योधन के आगे प्रगट कर दिये।
मैं यह अभी कह चुका हूं कि अन्याय के प्रति असहयोग न करने से बड़ा भारी अनर्थ हो जाता है। इस कथन की पुष्टि के लिए महाभारत के युद्ध पर ही दृष्टि डालिए। अगर भीष्म और द्रोण आदि महारथियों ने कौरवों से असहयोग कर दिया होता तो इतना भीषण रक्त-पात न होता और इस देश के अधःपतन का श्रीगणेश भी न होता। अन्याय से असहयोग न करने के कारण रक्त की नदियां बहीं और देश को इतनी भीषण क्षति पहुंची कि सदियां व्यतीत हो जाने पर भी वह सम्भल न सका।
कौन–सा कार्य न्यायसंगत है और कौन-सा अन्याययुक्त है, किस कानून से प्रजा के कल्याण की
केससे अकल्याण की. यह बात प्रत्येक मनष्य नहीं समझ सकता। समझदारों को चाहिए कि वे प्रजा को इस बात का ज्ञान कराएं। जो व्यक्ति समय-समय पर प्रजा का अपना
का ज्ञान कराएं। जो व्यक्ति समय-समय पर प्रजा को अपनी भलाई-वराई का ज्ञान कराते हैं और बुराई से हटाकर भलाई की ओर ले जाते हैं, जनता का पथ-प्रदर्शन करते हुए स्वयं आगे-आगे इस पथ पर चलते है, उन्हें जनता अपना पूज्य नेता मानती है और उन्हें श्रेष्ठ पुरुष मानकर उनके पीछे-पीछे चलती है। गीता में कहा
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते । ।