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जरा विचार कीजिए, वकरा क्या आरागान से टपक पड़ा है? उसका जन्ग किसी बकरी के गर्भ से हुआ है। उस वकरी ने कितना चारा खाया होगा, कितना पानी पिया होगा, जिससे गर्भ का पोषण हुआ तथा जन्म लेने के बाद बकरे ने कितना घास खाया और कितना पानी पिया है, जिससे उसका शरीर पुष्ट हुआ है ? इसका हिसाब लगाना अत्यावश्यक है। बकरे की हिंसा और धान पैदा करने की हिंसा की इस आधार पर तुलना की जाय, तो मालूम होगा कि हिंसा किसमें ज्यादा है ?
इस सम्वन्ध में एक बड़ी वात और भी है। क्या धान आदि द्वारा पेट भरने वाला इतना झूठा स्वभाव का हो सकता है जितना वकरे का मांस खाने वाला हो सकता है ? यदि नहीं तो मांस खाने वाले के गुणों और धान्य खाने वाले के अवगुणों के गीत क्यों गाये जाते हैं।
ऊपर-ऊपर के विचार से तो हमने पादरी को दोषी ठहरा दिया और यह भी कह दिया कि वह अपनी झूठी सफाई देकर लोगों को धोखा देता है। परन्तु आपने कभी अपने सम्बन्ध में भी सोचा है? मित्रों! आप लोग भी ऊपर -ऊपर से विचार करते हैं और गहरे पैठकर विचार करने की क्षमता प्राप्त नहीं करते। आप विचार कीजिए, एक चमार को, जो मरे हुए बकरों आदि जानवरों की चमड़ी उतारकर जूता, चरस, पखाल आदि बनाता है, आप नीच समझते हैं और उसे घृणा की दृष्टि से देखते हैं। पर आप ही कई सेठ कहलाने वाले भाई अपने मिलों में उपयोग करने के लिए सैंकड़ों नहीं, हजारों भी नहीं वरन् लाखों मन चर्वी काम में लाते हैं। यह कितने ताप की बात है ? जब बेचारा चमार आपकी दूकान पर आता है तो आप लाल- लाल आंखें दिखाकर उसे डांट फटकार दिखलाते हैं, पर जब चर्बी वाले सेठजी आते हैं तो उन्हें उच्च आसन पर बैठने के लिए आग्रह करते हैं। यह सब क्या है ? क्या यह आपका सच्चा इन्साफ है ? नहीं मित्रों! यह घोर पक्षपात है और महापाप के वन्ध का कारण है ?
मैं पहले कह चुका हूं कि श्रावक संकल्पजा हिंसा का त्यागी हो सकता है, किन्तु आरम्भजा हिंसा का नहीं। संकल्पजा हिंसा से पहले आरम्भजा हिंसा के त्याग करने का प्रयल करना मूर्खता है, क्योंकि उसका इस प्रकार त्याग होना सम्भव नहीं है। क्रम से काम होना श्रेयस्कर होता है।
कई बहिनें चक्की चलाने का त्याग करती हैं पर आपस में लड़ने-झगड़ने और गाली-गलौज करने में तनिक भी नहीं हिचकतीं। वे न इधर की रहती हैं, न उधर की रहती हैं। वे स्वयं नहीं पीसतीं, दूसरों से पिसवाती हैं। जो बहिन अपने हाथ से काम करती है वह यदि विवेक वाली है तो 'जयणा' रख सकती है, पर जो दूसरे के भरोसे रहती है वह कहां तक बच सकती है, यह आप स्वयं विचार देखिए। _ मित्रों! अहिंसा को ठीक तरह से समझने के लिए मोटी-सी बात पर ध्यान दीजिए। अहिंसा के तीन भेद कीजिए-(१) सात्विकी, (२) राजसी और (३) तामसी। सात्विकी अहिंसा वीतराग पुरुष ही पाल सकते हैं। राजसी अहिंसा वह है जिसमें अन्याय के प्रतिकार के लिए आरम्भजा हिंसा करनी पड़े। जैसे राम और रावण का उदाहरण लीजिए। रावण सीता को हरण कर ले गया। राम ने सीता को मांगा, पर रावण लौटाने को तैयार न हुआ। तब लाचार होकर राम ने रावण के विरुद्ध शस्त्र उठाया और उसका नाश किया। यह हिंसा तो अवश्य है पर इसे राजसी अहिंसा की कहा जाता है। रावण ने शस्त्र उठाया-सो संकल्पजा हिंसा थी और राम की हिसार आरम्भजा। दोनों में यह अन्तर है। राजसी अहिंसा सात्विकी अहिंसा से भिन्न श्रेणी की है पर तामसी अहिंसा स उच्च कोटि की है। तामसी अहिंसा कायरता से उत्पन्न होती है। अपनी स्त्री पर अत्याचार होते देखकर, जो क्षात पहुंचने या अपने मर जाने के डर से चुप्पी साधकर बैठ जाता है, अन्याय और अत्याचार का प्रतिकार नहीं करता, .