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मित्रों! इस परम्परा में एक रहस्य है। जिस दावे को पूरा करने के लिए राजा आक्रमण करता है, उसे कदाचित् वह राजा, जिस पर आक्रमण करना है, विना युद्ध किये ही स्वीकार कर ले। ऐसी अवस्था में वह युद्ध निरपराधी सैनिकों की हिंसा का कारण होगा और अनावश्यक भी होगा। इस प्रकार निरपराध जीवों की हिंसा से
वचने के लिए ही युद्ध से पहले दूसरे राजा के सामने मांग पेश कर दी जाती थी। दूसरा राजा जब आक्रमणकारी • की मांग स्वीकार नहीं करता था तो उसे अपराधी समझकर वह आक्रमण कर देता था।
इससे यह विदित हो जाता है कि श्रावक अपराधी जीवों की हिंसा का एकान्ततः त्यागी नहीं होता।
अहिंसा कायर बनाती है या कायरों का शस्त्र है यह बात वही कह सकता है जो अहिंसा का स्वरूप __ और सामर्थ्य नहीं समझ पाया है। इससे विपरीत सत्य तो यह है कि अहिंसा का व्रत वीर शिरोमणि ही धारण कर
सकते हैं। जो कायर है वह अहिंसा को लजाएगा। वह अहिंसक बन नहीं सकता। कायर अपनी कायरता को छिपाने के लिए अहिंसक होने का ढोंग रच सकता है, वह अपने आपको अहिंसक कहे तो कौन उसकी जीभ पकड़ सकता है, पर वास्तव में वह सच्चा अहिंसक नहीं है। यों तो सच्चा अहिंसावादी एक चींटी के भी व्यर्थ प्राण हरण करने में थर्रा उठेगा, क्योंकि वह संकल्पजा हिंसा है। वह इसे महान् पातक समझता है। जब नीति या धर्म खतरे
आय का तकाजा होगा. और संग्राम में कदना अनिवार्य हो जायगा, तब वह हजारों मनुष्यों के सिर उतार लेने में किंचित्मात्र खेद प्रकट न करेगा। हां, वह इस बात का अवश्यपूर्ण ध्यान रखेगा कि संग्राम मेरी 3 संकल्परूप न हो, वरन् आरम्भ रूप हो ।
संकल्पजा हिंसा करने वाले को पातकी के नाम से पुकारा जाता है, पर आरम्भजा हिंसा करने वाला __ श्रावक इस नाम से नहीं पुकारा जाता।
मित्रों! इस संक्षिप्त विवेचन से आप समझ गये होंगे कि जैनों की अहिंसा इतनी संकुचित नहीं है कि वह संसार के कार्य में बाधक हो और सांसारिक कार्य करने वालों को उसका परित्याग करना पड़े। वह इतनी व्यापक और विशाल है कि बड़े-बड़े सम्राटों, राजाओं और महाराजाओं ने उसे धारण किया है, पालन किया है
और आज भी वे उसका धारण -पालन कर सकते हैं। उनके लोक-व्यवहार में किसी प्रकार की रुकावट खड़ी नहीं होती। जैन अहिंसा अगर राजकाज में बाधक होती तो प्राचीन काल के राजा-महाराजा उसका पालन किस प्रकार करते?
एक पादरी की लिखी हुई पुस्तक में मैंने पढ़ा था कि हिन्दू लोगों की अपेक्षा हम पादरी लोग अधिक अहिंसक हैं। हिन्दू शास्त्रों के अनुसार गेहूं आदि पदार्थों में जीव है। हिन्दू लोग गेहूं आदि को पीस कर खाते हैं। ऐसा करने में कितनी हिंसा होती है ? एक बात और भी है। जव गेहूं आदि की खेती की जाती है तव भी पानी के, पृथ्वी के और न जाने कौन-कौनसे हजारों जीवों की हत्या होती है। वे इतनी अधिक हिंसा करने के पश्चात् पेट भरने में समर्थ हो पाते हैं। फिर भी हिन्दू लोग अपने आपको अहिंसक मानते हैं।
हम पादरी लोग सिर्फ एक बकरे को मारते हैं और उसी से अनेक आदमियों का पेट भर जाता है। ___ इससे हम बहुत कम हिंसा करते हैं।
_ मित्रों! यह पादरी भोले-भाले लोगों की आंख में धूल झोंकने का प्रयास कर रहा है। वह इस युक्ति से हिन्दुओं के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न करवाना चाहता है। वह समझता है, तर्क सुनकर बहुत से लोग ईशु की शरण में आ जाएंगे। मगर यह पादरी भाई भारी भ्रम में है। उसे समझ लेना होगा कि वह जो दलील पेश करता है, सच्चे अहिंसावादी के सामने पल भर ही नहीं ठहर सकती।