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हिन्दू शास्त्र भी किसी जीव को न मारने का विधान करता है, परन्तु जैन शास्त्रों में इसका बहुत अच्छा, स्पष्ट और बारीक विवेचन किया गया है। जैन शास्त्रों में हिंसा के दो भेद किये हैं एक संकल्पजा हिंसा और दूसरी आरम्भजा हिंसा।
'संकल्पाज्जाता संकल्पजा । मनसःसंकल्पाद् द्वीन्द्रियादिप्राणिनः गांसारिथचनखदन्ताद्यर्थ व्यापादती भवति ।
अर्थात्-मांस, हड्डी, चमड़ी, नाखून, दांत आदि के लिये जानबूझकर द्वीन्द्रिय आदि जीवों को मारना संकल्पजा हिंसा कहलाती है।
आरम्भाज्जाता आरम्भजा । तत्रारम्भो हलदन्तालरवननरतत् । तस्मिन् शंखपिपीलिकाधान्य गृहकारिकादि संघट्टन-परिताप द्रावलक्षणेति ।
अर्थात्-हल जोतने से तथा दांतुली आदि उपकरणों से और घर आदि बनाने में जो सूक्ष्म जीवों की हिंसा होती है, वह आरम्भजा हिंसा है।
__तत्र श्रमणोपासकः संकल्पतो यावज्जीवयाऽपि प्रत्याख्याति, न तु यावञ्जीवयैव नियमतः, इति नारम्भजमिति तस्यावश्यकता आरम्भसद्भावादिति ।
श्रावक जीवन पर्यन्त के लिए भी संकल्पजा हिंसा का त्यागी हो सकता है परन्तु गृह-निर्माण आदि कार्यों में लगे रहने से आरम्भजा हिंसा का सर्वथा—नियम से त्यागी नहीं हो सकता। आरम्भ करने के कारण आवश्यकता पड़ने पर हिंसा हो ही जाती है।
___ आज अहिंसा का वास्तविक रहस्य न समझने के कारण अपने-आपको श्रावक मानने वाले कई भाई ऐसे काम कर बैठते हैं, कि अन्य-धर्मावलम्बी उनके कार्यों को देखकर उनकी हंसी उड़ाते हैं। कभी-कभी तो इतनी नासमझी प्रकट होती है कि उनके कारण धर्म की अप्रतिछा होती है। कहां तो जैन धर्म की अहिंसा की विशालता और कहां इन भोले भाइयों की अहिंसा के पीछे हिंसा का बड़ा भाग।
आज अनेक भाई आरम्भजा हिंसा से बचने की पूरी कोशिश करते हैं पर संकल्पजा हिंसा से बचने के लिए कुछ भी प्रयत्न करते नजर नहीं आते। हिंसा-अहिंसा का सच्चा रहस्य न जानने के कारण ही कई श्रावक चींटी मर जाने पर जितना अफसोस प्रकट करते हैं, मनुष्य पर अत्याचार करने में उतनी घृणा नहीं करते।
मित्रों! जैनधर्म की अहिंसा ऐसी नहीं है जैसी कि आपने भूल से उसे समझ लिया है। अवसर आने पर सच्चा जैनधर्मी युद्धभूमि में जाने से नहीं हिचकता। हां, वह इस बात का पूरा ध्यान रखता है कि मुझसे कहीं निरपराध प्राणी की संकल्पजा हिंसा न होने पावे ।
प्राचीन काल में जब कोई राजा दूसरे राजा पर आक्रमण करता था तो वह आक्रमण करने से पहले उसे सूचना देता था। सूचना के साथ ही वह अपनी मांग भी उसके सामने उपस्थित कर देता था। चाहे महाभारत के युद्ध का इतिहास पढ़िये, चाहे राम -रावण के संग्राम का। सर्वत्र आप देख सकेंगे कि आक्रमण से पहले, जिस पर आक्रमण किया जाता था उसके सामने आक्रमणकारी ने अपनी मांग पेश की। प्राचीन भारतवर्ष में यह नियम इतना व्यापक और अनुल्लंघनीय बन गया था कि आज भी इसकी परम्परा प्रायः दिखाई देती है। इस समय भी अपने दूतों के द्वारा मांग पेश की जाती है।
क्या आप बता सकते हैं कि इस नियम का क्या कारण था ? पहले से युद्ध की सूचना देकर अपने शत्रु - तैयार होने का अवसर क्यों दिया जाता था ? राजा लोग अचानक आक्रमण क्यों नहीं कर देते थे?
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