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कार्यकलापों पर निर्भर करती है। कृष्ण का जन्म कंस के कारावास में और जरासंध का जन्म रत्नजटित राजप्रासादों में। हम देखते हैं कि इनमें कौन महान् है ? दो-चार नहीं ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो कि जन्मे किस स्थिति में और पहुँचे किस स्थिति में। अतः स्पष्ट है कि जन्म के केवल बाह्य परिवेश से कोई व्यक्ति महत्वशाली नहीं बनता है। मानव अपने सत्कर्मों की बदौलत महान बन साधना पथ को अपनाकर परमात्म पद को प्राप्त कर सकता है। इस महान आचार्य को बचपन से ही संकटों का सामना करना पड़ा। दो वर्ष की आयु में माता का विरह पाँच वर्ष की आयु में पिता का वियोग, मामा का संरक्षण मिला किन्तु वह भी तेरह वर्ष की आयु में समाप्त हो गया। किन्तु ऐसी महाविपत्तियों में भी घबराये नहीं। Deep tragedy is the school of great man. महान् संकट ही महापुरुषों का विद्यालय है। इन संकटों से आचार्यश्री को दृढ़ता प्राप्त हुई एवं संसार की असारता का सही दिग्दर्शन हुआ। हृदय में वैराग्य की ऊर्मिया लहराने लगी। वे भी साधारण नहीं, सच्चे किरमिची रंग के सदृश। और तीन वर्ष बाद सोलह वर्ष की आयु में महाअभिनिष्क्रमण के मग पर आरूढ़ हो गये। महत्व व्यक्ति एवं जन्म का नहीं है, महत्व साधना का है। महत्व है धर्माचरण का, महत्व है व्रतारोहण का, विशेषता है साधना की। जिसको आचार्यश्री ने आत्मसात् किया। बचपन के खाने-खेलने से पलायन कर स्वकल्याणार्य स्वजागरणार्य, सतत संघर्ष में जुट गये। यही तो आत्मोसर्ग का सच्चा क्रम है। क्योंकि दीक्षा प्राप्त करना संसारी जीवन से मुक्त होकर आध्यात्मिक जीवन में जन्म लेना है; तभी तो महावीर ने फरमाया था-'एस वीर पंसंसीय जे बद्धे पडिमोयए' तो आचार्य भगवन ने आत्मसाधना की ओर बढ़कर निरन्तर अपने में अखण्ड ज्योति जगाते रहे। अनुकूल प्रतिकूल कोई विकल्प नहीं रहा। निरन्तर शुद्धत्व की ओर अपने दृढ़ कदमों को बढ़ाते रहे। उस समय आपका गरिमामय जीवन, आप के सिद्धान्त, आदर्श एवं शिक्षाएं जन-जन को आकर्षित करती रही थी। पचास वर्ष पूर्व आपका भौतिक शरीर शान्त हुआ। अद्धशती बीतने के बाद आज भी इस भटके हये समाज और देश को आपके उपदेशों की अधिक
आवश्यकता है। आपका साहित्य आज भी जीवन्त प्रकाश स्तम्भ के रूप में हमारे सामने विद्यमान है। 'कीर्तिर्यस्य स जीविति' आज आपकी कीर्ति, यश, गौरव हमारे सामने विद्यमान है। सन्त का अस्तित्व अनन्त होता है 'सः अन्त इतिसन्त' अर्थात् जो चरम सीमा पर पहुँच जाता है वही सन्त है। सन्त की महिमा शब्दों के द्वारा व्यक्त नही की जा सकती है, उसे शब्दों द्वारा व्यक्त करना कठिन है।
ज्योतिर्धर आचार्य जवाहरलालजी का जीवन 'साधयति स्व पर कार्याणि' था जिन्होंने अपने ज्ञान का इतना प्रसार किया कि आज भी तथा युगों-युगों तक प्रकाश स्तम्भ के रूप में जन-जन को आलोकित करता रहेगा। सूर्य का प्रकाश तो केवल दिन तक ही सीमित है किन्त वे ऐसे प्रकाश स्तम्भ हैं जो रात-दिन जनमानस को जयकार से प्रकाश की ओर ले जा रहे हैं। भले-भटके मानवों को सही दिशादर्शन करा रहे हैं तथा करात रहगा जाचार्यश्री क्रान्ति
क्रान्तिकारी युगदृष्टा थे। ऐसा आचार्य अब तक नहीं हआ जो कि सामाजिक, धार्मिक, साहित्विक और राष्ट्रीय १ धाराआ से एक साथ जुड़ा रहा हो। आपने अल्पारम्भ-महारम्भ पर जिस प्रकार क्रान्तिकारी विचार दिये व कि किसी आचार्य ने नहीं दिये हैं। विक्रम संवत १EE२ में जब अल्पारम्भ-महारम्भ को लेकर काफी विवाद
। उस समय आपने अपने गहन चिन्तन एवं मौलिक विचारों के साथ अपनी शास्त्र-सम्मत व्याख्या प्रस्तुत प सत्याग्रही युगदृष्टा लब्धप्रतिष्ठ एवं गम्भीर विचारक आचार्य थे। आप प्रकाण्ड विद्वान तो थे ही साथ । युगानुकूल एवं सिद्धान्त-सम्मत व्याख्या प्रस्तत करने में सिद्धहस्त थे। कृषि कर्म के बार में
है. क्योंकि प्रश्न पूछे जाने पर आपने स्पष्ट फरमाया कि कृषि कर्म को महारम्भ मानना उचित नहीं है; मानव का शोषण एवं अहित उतना नहीं होता जितना ब्याज या कल कारखाने आदि धन्धा त हात
अब तक चल रहा था उस समय आपने अपन' की थी। आप सत्याग्रही युगदृष्टा ही शास्त्रों की युगानुकूल
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कृषि कर्म से मानव का शोषण एवं आ