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प्रज्ञा-पुरुष 0 चाँदमल वावेल
'करोड़ों रोज आते हैं धरा का भार वनने को, अनेकों जन्म लेते हैं जनों के पाश बनने को। कई हैं जन्मते पण्डित, जवा से ब्रह्म बनने को,
उपजते हैं यहाँ कितने, शरीरी सन्त वनने को ।।' इस नश्वर संसार में असंख्य प्राणी प्रतिदिन जन्म धारण करते हैं और प्रतिदिन काल के विकराल गाल में विलीन हो जाते हैं। जन्म-मृत्यु का यह कालचक्र अनादिकाल से चला आ रहा है। एक दिन जन्म लेना, एक दिन मरण को प्राप्त करना, यह विश्व का अबाध सनातन नियम है। जन्म- मरण इस दृष्टि से अपने परिवेश में कोई विशेष घटना नहीं रह गयी है। पता ही नहीं चलता कि इस जन्म-मरण के चक्रव्यूह में कौन कब और कहाँ जन्म लेता है, और इस संसार से कब चला जाता है। इस जन्म-मरण के चक्र को क्या कभी ऐतिहासिक बनाया जा सकता है ? यह प्रश्न विचारणीय है?
विश्व के इतिहास में बड़े-बड़े धनपति व सत्ताधीश हो चुके हैं जिनके प्रासाद गगन से टकराते थे, जिनके विशाल भवनों में लक्ष्मी नृत्य करती थी, जिनके शौर्य बल के सामने अनेक योद्धा हाथ जोड़े खड़े रहते थे। किन्तु आज विश्व में किस कोने में उनके स्मृतिचिह्न अवस्थित हैं ?
विश्व के उदयाचल पर विराट व्यक्तित्वसम्पन्न दिव्यात्माएँ समय-समय पर उदित होती रही हैं जिनक आचार-विचार, ज्ञान और चारित्र का भव्य प्रकाश देश, धर्म और समाज के सभी अंचलों को आलोकित करता रहा है, जन-जन के जीवन में ज्योति भरता रहा है।
वस्तुतः भारत की शस्य श्यामला वसुन्धरा में युगों-युगों से धर्म-धारा प्रवाहित होती रही है। बुध महावीर, राम, कृष्ण ने अपने अध्यात्म ज्ञान एवं धर्मोपदेश से इस देश के धर्ममय स्वरूप को बचाये रखकर उस विश्व में विशिष्ट स्थान दिलवाया है। इस धरा पर प्रेम और त्याग, संयम और सदाचार की धाराएँ सदा बहता रहा हैं जिसकी शीतलता में सारी मानवता आत्मविभोर हो अध्यात्म रंग में रंगी रही हैं।
___आदितीर्थंकर ऋषभदेव से महावीर तक के शासनकाल में हजारों-हजारों संयमी मुमुक्षु आत्माएँ धर्म पथ पर चल कर आत्मकल्याण करती हुई जन-जन को सबोध देती रही हैं। इसके बाद भी पावन धर्म सलिला ।" प्रवाहित होती रही है। यह क्रम आज तक चला आ रहा है। इस क्रम में महान् ज्योतिर्धर, युग-प्रधान न १००८ श्री जवाहरलालजी म.सा. आये। वैसे मानव की महिमा जन्म से नहीं है बल्कि स्वयं का सामना
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