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है। इसलिये कृषि अल्पारम्भ है। यही कारण है कि प्राचीन काल में आनन्द आदि अनेक बड़े-बड़े श्रावक कृषि कर्म करते थे। यदि कृषि कर्म महारम्भ होता तो श्रावक वर्ग इसे कैसे अपनाता ? क्योंकि महारम्भ तो श्रावक के लिये सर्वथा त्याज्य होता है। तथा महारम्भ को दुर्गति का भी कारण बताया है। भला इसे श्रावक कैसे अपनाता ?
आपने इस प्रकार की व्याख्या की जो कि शास्त्र सम्मत होते हुये भी उस समय प्रचलित अटपटी मान्यता से भिन्न थी अतः विरोधी पक्ष ने इतना तहलका मचा दिया कि आपको 'शास्त्र विरुद्ध प्ररूपक' (उत्सूत्र प्ररूपक) कहा जाने लगा । किन्तु आप क्रान्तिकारी थे अतः विरोध की कोई परवाह नहीं की क्योंकि आप गम्भीर विचारक के साथ-साथ तटस्थ भी थे। विरोध एवं प्रतिक्रिया सुनने को सदैव उद्यत रहते थे। आपको अपनी व्याख्याओं के प्रति कदा ग्रह नहीं था । अपनी प्रबल युक्तियों से और शास्त्रीय प्रमाणों से आप उनका उत्तर दे जिससे आपके सामने विरोधियों की युक्तियाँ टिक नहीं पाती थी ।
वास्तव में आचार्य श्री का जीवन गौरवशाली था । वे केवल जैन समाज के लिये ही नहीं बल्कि विश्व के लिये वरदान थे । एक आदर्श साधक, आदर्श तपस्वी, बाल- ब्रह्मचारी होने के कारण आपका व्यक्तित्व इतना तेजस्वी था कि एक बार जो भी दर्शन कर लेता उसके मन में उनकी पावन प्रतिमा स्थापित हो जाती थी ।
आचार्य श्री ने समाज उत्थान के लिये अपना जीवन लगा दिया। वे समाज के प्राण थे । अनन्त गुणों के भण्डार थे। आपके सद्गुणों की व्याख्या सहस्त्रों जिह्वाओं द्वारा भी नहीं की जा सकती ।
जिन तत्त्व के साधक शिरोमणि । आपका गुणानुवाद करना कठिन है, जैसे प्रलयकाल की वायु से क्षुब्ध समुद्र को अपनी भुजाओं से तैरना कठिन है उसी प्रकार आपके अन्तःकरण के अथाह समुद्र का अवगाहन करना कठिन है। आपने आगमों की वाणी को जनमानस के हृदय में उंडेलने का महान् प्रयास किया । आगम साहित्य की सेवा आचार्य श्री द्वारा हुई वह स्थायी रहेगी। आपका परिश्रम श्लाघनीय है।
हे भारत के महान आचार्य, ज्योतिर्धर, क्रान्तिदर्शी, युग द्रष्टा, महान युग पुरुष, महान् सुधारक, महान संगठन प्रेमी, समाज के सही नेतृत्वकर्ता, अप्रमत शीर्षस्थ साधक, चेतना के उन्नायक, सम्प्रदायवाद के विरोधी, स्वतन्त्र चिन्तक, संस्कृति के सजग प्रहरी, सिद्धान्तों के व्यवहारिक व्याख्याकार, बहुआयामी प्रतिभा के धनी, कोटि-कोटि वन्दन ।
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