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लेकिन हमारे पारलौकिक धर्म को या यो कहें कि अपने उपासना धर्म को इहलौकिक धर्म के साथ जोड़ा नहीं है और न ही उसे इहलौकिक धर्म का अंग बनाया है वरन् इस पारलौकिक धर्म को इस इहलौकिक धर्म से अन्तिम क्रम में रखा है उसे अलग रखकर भी उसे भिन्न नहीं किया है बल्कि उसे संपूरक बनाया है। सांकल की कड़ी की तरह प्रत्येक धर्म को जोड़ा तो है परन्तु अंग नहीं बनाने पर जोर दिया है क्योंकि प्रत्येक धर्म दूसरे धर्म से भिन्न है। जीवन शुद्धि और सिद्धि के लिए स्थानांग सूत्र के आधार पर जिन दस धर्मों का विवेचन आचार्य प्रवर ने धर्म और धर्मनायक पुस्तक में किया है, उसमें प्रत्येक धर्म को लक्ष्य करके उसी का विधान किया जबकि दूसरे के लिए अलग धर्म की योजना पर प्रकाश डाला है। उन्होंने प्रत्येक धर्म का विवेचन किया है उसमें उसकी यथोचित रक्षा, विभिन्न आवश्यक कर्तव्यों के पालन के साथ उसके विकास के लिए कार्य योजना हेतु कार्यक्रम बनाने का विधान जरूर किया गया है परन्तु प्रत्येक धर्म का मुख्य कार्य दूसरे धर्म से अलग है। जिस प्रकार शरीर के प्रत्येक अवयव के अंगों का कार्य दूसरे अवयव के अंगों से भिन्न होकर भी उसका प्रत्येक कार्य शरीर हित में होता है, परन्तु किसी अवयव के मुख्य अंगों के कार्य को उसके दूसरे अवयवों के अंगों के साथ जोड़ा नहीं जा सकता उसे हिस्सा नहीं बनाया जा सकता तभी शरीर स्वस्थ रूप से सुचारू रीति से कार्य कर सकता है।
आचार्य श्री जवाहर ने प्रभु ऋषभदेव द्वारा स्थापित संस्कृति की सार्थकता एवं उसके वैज्ञानिक महत्त्व को उजागर करके मानव जाति को उस अवस्था से सुमेल बैठाने वाली संस्कृति विकसित करने हेतु प्रेरित किया।
ऋषभदेव परमात्मा द्वारा स्थापित दार्शनिक चिन्तन प्रणाली से ही परिवार का संगठन, समाज की व्यवस्था, राष्ट्रनीति और विश्व रचना का सही दिशा निर्धारण संभव हो सकता है।
विश्व संरक्षण उनकी दार्शनिक चिन्तन प्रणाली और पद्धति में ही अन्तर्निहित है।
धर्म का स्वरूप उसकी परिभाषा व्याख्या और उसके विभिन्न आयाम आदि उनकी स्थापित प्रणाली म ही अन्तर्निहित हैं। वहां धर्म को बड़े व्यापक अर्थ में ग्रहण किया है और वहां उसके दायरे की हद को सुनिश्चित न करके धर्म की समग्रता का बोध कराया है। . आचार्य श्री जवाहर ने उसे किस प्रकार परिभाषित किया इसे बताने के पूर्व प्रभु ऋषभदेव की स्थापित व्यवस्थाओं को समझने का प्रयास करें।
प्रभु ऋषभदेव जैन परम्परा में तीर्थंकर माने गये हैं तो वैदिक परम्परा में अवतार माने जाते हैं। उनका इस भूतल पर हुए युग-युगान्तर काल बीत गया है। इतिहास वहां पहुंच नहीं सकता।
भगवान ऋषभदेव ने इस भूतल पर अवतरित होकर मानव-जाति के लिये ऐसे-ऐसे महान उपकार १ कार्य किए हैं जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती है। भी मानवीय या इष्ट वहीं माना जाता है जो आवश्यकताओं की पर्ति करता है। जो छोटी आवश्यकताजा
पूर्ति करता है वह थोड़ा इष्ट होता है और जो बड़ी आवश्यकताओं को पूर्ण करता है वह अधिक इष्ट जब कोई व्यक्ति अपने आपको किसी कार्य की सिद्धि के लिए असमर्थ समझता है तब वह दूसरों का
___ है और उस सहायता की न्यूनता एवं अधिकता के अनुसार ही वह सहायता देने वाले का आदर करता " जगत् के जीवों का भगवान ने किस प्रकार उपकार किया है. यह उज्ज्वल कथा आगमो क 20 "
हुई पाई जाती है।
होता है। सहायता
ता है।
जगत