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कारीगर के प्रत्यक्ष दिखाई न देने पर भी उसकी कलाकृति को देखकर उसके कोल का अनुमान जा सकता है।
आगमों में प्रभु ऋषभदेव की महिमा का बड़े विस्तार से विवेचन किया है उसमें कितना है, उसका विचार तो कोई पूर्ण पुरुष ही कर सकता है, मगर हमें भी अपनी बुद्धि के अनुसार विचार दान चाहिये । पक्षी को विमान प्राप्त नहीं है तो भी वह अपने पखों की शक्ति के अनुसार ही उड़ता है।
योगलिक सभ्यताकाल में जव मनुष्य अपनी वैयक्तिक सीमाओं में बद्ध होकर भोगभूमि में विचरण कर रहा था तव उसके पुरुषार्थ को भौतिक एवं आध्यात्मिक प्रगति की दिशा में प्रेरित करने का मारमा कार्य भगवान ऋषभदेव ने किया।
प्रकृति परिवर्तनशीला है, फलस्वरूप कल्पवृक्ष के समान गनुष्य की आवश्यकताओं की संगति करने का म फल-फूल कम देने लगे। तत्कालीन समाज की जटिलताएं बढ़ने लगी ऐसे विकट समय में वहां संय , लाई, अगड़ा एवं संग्रह वुद्धि होने से निःस्पृहता एवं उदारता की कमी हुई। श्री नाभिराजा ने जन नेहत का अपने पुत्र प्रभु ऋषभदेव को सौंप दिया।
मानवीय चेतना को उद्भुत करने वाले प्रभु ऋपभदेव ने ग्रामधर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म को मापना थी। प्रभु ने अपने सुदीर्घ जीवन के ८३ भाग जनता को धर्म का पात्र बनाने के प्राथमिक कार्य में लगाये। उन्होंने अपने जीवन का एक भाग सूत्र–चरित्र धर्म के प्रचार में लगाया था।
मानव-जाति को विनाश से बचाने के लिये प्रभु ऋषभदेव ने जीवनोपयोगी साधनों के उपाय संरक्षण का क्रियात्मक उपदेश दिया।
नए वृक्ष रोपना, वृक्ष सींचना, अन्न पकाना, व्यापार करना मिट्टी एवं अन्य धातुओं के पास बनाकर मना, रोगी की चिकित्सा करना एवं संतान के पालन-पोषण संबंधी अनेक पद्धतियां सबसे पहले प्रा : सारा ही परिचित कराई गई। ... गांवों एवं नगरों का निर्माण, गर्मी-सर्दी एवं वर्षा से बचने के लिए घर निर्माण आदि का
जी ही देन है।
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. प्रभु ऋषभदेव ने मनुष्यों को निरसहाय एवं प्रकृतिमुखापेक्षी रहने के बदले पुरयाई का को अपने नियंत्रण में कर उससे मनचाहा काम लेना सिखाया। प्रभ ने न
सिर परताओं की पूर्ति का मार्ग बतलाया वरन रचनात्मक कार्य करके सबके सामने अरः पों को और चौंसठ स्त्रियों की कलाओं की शिक्षा दी धी।