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गान सके कोई संतों की जग में महिमा पूरी,
भव की चकित बुद्धि में रहती
सीमा की मजबूरी ।
फिर भी, गिरा पवित्र बने वस
उनका गीत सुनाता; अपनी कोमल कविताओं का
पग पर फूल चढाता ।
तप कर धरती जलती है जव सागर-धार उवलती है तव
नीर ताप पर चढ़ जाता है मेघ गगन में वन जाता है।
वही घटा फिर झर्झर् झरती नयन धरा के शीतल करती
कारण-कार्य सभी हैं गुम्फित इसमें ही जग रहता सीमित ।
जब भी जिसकी पड़ी जरूरत शक्ति भुवन में खिलती अविरत, वही उपस्थित हो जाता है
दृग के सम्मुख मुस्काता है ।
नियम प्रकृति का यही अटल है इस पर आश्रित कर्म प्रबल है; अपना पथ यह स्वयं बनाती बाधा इसमें कभी न आती !
अपने मन की ही इच्छा से साधु-पुरुष की ही शिक्षा से, सृष्टि चला करती है अविरल
इस पर निर्भर है नभ-जल-थल !
सर्ग दो
उठो लेखनी ! शब्द शब्द में नई रोशनी भर दो; चलने को अविराम धरा पर
जीवन उज्ज्वल कर दो।
परम पुरुष का चरित वखानूँ ऐसा मुझ में चल दो;
भाव हृदय के रन्ध्ररन्ध्र में
गतिमय और विमल दो ।
जो भी आते प्रेरित आते
अपने अपना कर्म सजाते;
उससे भिन्न नहीं कुछ भी है
अग जग में वस तत्त्व यही है ।
इसके कारण शुभ फल आता सवको केवल यही नचाता,
मानव आता इस भूतल पर शक्ति वही अपने में भर कर ।
शक्ति चाहती काम कराना
मानव चुनता ताना-बाना,
मानव तो कठपुतली ऐसा
सब कुछ करता उसके जैसा !
कोई इसे अलौकिक कहता इसके आगे नत सिर रहता; कोई सदा उदास हृदय से सहमे रहते रश्मि उदय से ।
अपना-अपना कर्म सभी में तरू-सा उगता शान्त मही में;
किन्तु वही फल-फूल निखरता जिसमें दैवी तत्त्व उभरता !