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त्यागी होकर, घे अनुरागी पर-हित में मन से वैरागी वाणी बात पुण्य की करती दैवी शक्ति हदय में रहती।
ऐसे ही जन इस पर धरती पर बनते जन-कल्याण-दिवाकर; और बनाते सकल सृष्टि को उन्नत जग में लीन दृष्टि को। उनके आगे सभी एक हैं सव में उनके शुभ विवेक हैं; वहाँ न रहता भेद किसी में रोदन-क्रन्दन और हंसी में।
मेरे पुण्य चरित के नायक ऐसे ही थे शुद्ध विधायक अपना पैतृक घर छोड़ा था कुटिल मोह से मुँह मोड़ा था। किन्तु जगत कौटुम्ब बना था सव प्राणी से प्राण जुड़ा था। स्वयं सर्व भूतात्म भाव से रहे सदा संश्लिष्ट चाव से। त्याग दिया था गेह नेह का किन्तु हदय था रूप लेह का; इसीलिए जन-जन के मन में पसे हुए हैं प्रतिपल-छन में।
भरत-भूमि परतंत्र बनी थी दास-भाव में घनी सनी थी; लोग-बाग सव उच्छंखल घे अपने मन से दीन-निक्ल थे। मन में था आडम्बर आया अपना सच्चा ज्ञान भुलाया; दया-धर्म का लोप हुआ था उन्नत भाव-विलोप हुआ था। पशु-सा जीवन लगा बीतने सात्विकता खुद लगी रीतने। ऐसे में ही पूज्य जवाहर आये भू पर बनकर नर-बर। उनका ही हम यश हैं गाते उनकी पावन कीर्ति सुनाते; इससे हदय प्रसन्न रहेगा उर्ध्य भाव आसन्न रहेगा !!
सर्ग अठारह
धर्म धरा का प्राण कि जिससे, जीवन उन्नत हो तो धर्म-विहीन जगत का प्राणी चीज जहर का बोता। इसीलिए है उचित कि अपनी नींव धर्म पर रखो धर्म-भाव-उत्प्रेरित होकर इस पल को चक्लो।
जहाँ गनुज से घट चुका है. सद्धों का आश्रयः वहाँ-वहाँ पर न्याय-नीति की होगी सदा पराजय। संत जवाहर को वा धर्म सदा जगता या; बिना धर्म के बाद जगन का