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महाकाव्य अंश
9 महोपाध्याय माणकचन्द रामपुरिया
पूज्याचार्य
सर्ग एक
उठो लेखनी, अपने को तुम निर्मल पावन करलो, अपनी पतली तीक्ष्ण नोक में शक्ति अलौकिक भरलो। महागनुज की दिव्य शक्ति की उन्नत गाथा गाओ; साधु-पुरुष के शीतल पग पर अपना शीश झुकाओ। जीवन जहाँ पवित्र सदा है वहाँ न रहती माया; सभी तरह से निर्गल रहती साधु जनों की काया। मोह न उसको कभी सताता गर्व न तिलभर रहता; औरों के हित अपने तन पर दुःस अहर्निश सहता। सायु वही है जिसके मन में कोई लोभ नहीं है। किसी प्रलोभन से अन्तर में सोई क्षोभ नहीं है।
जिसके कर्म सभी हैं सात्त्विक जीवन सदा सरल है; धरती पर वह उन्नत प्राणी मिलता बहुत विरल है। ऐसे जन ही धर्म-भाव की रखते टेक बनाये ऐसे ही श्री भद्रों ने तो रक्खी सृष्टि सजाये। जहाँ न ईर्ष्या-द्वेष लेश-भर वही हदय है निर्मल, साधु-जनों का महत तत्व है. परम श्रेय में अविचल। परम शान्ति सौहार्द-ज्योति में रहता है यह जगमग; जिनके वृद विश्वासों से है आलोचित भव-ग। परन स्वच्छ जस अनल जग भी होत नि : उनके तरी यमना काम