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________________ DO - - मोक्ष स्वरुप भी कहते हैं। इस गुणस्थान से श्रात्मविकाल के दो मार्ग हो जाते हैं। कोई श्रात्मा ऐसा होता है जो मोहनीय कर्म की प्रकृतियों का उपशम करता हुआ भागे चढ़ता चला जाता है और कोई आत्मा मोहनीय के प्रभाव का लय करता हुआ-मोह की शक्ति का ससूल उन्मूलन करता हुश्रा, आगे बढ़ता है । इस प्रकार पाउवे गुणस्थान से आगे बढ़ने वाले श्रात्मा दो श्रेणियों में विभक्त हो जाते हैं। प्रथम मार्ग को उपशम श्रेणी और दूसरे मार्ग को क्षपक श्रेणी कहते हैं। . जैसे आग को राख से दवा दिया जाता है मगर थोड़ी देर बाद हवा का झोंका लगने पर वह उखड़ आती है और संताप श्रादि अपना कार्य करने लगती है । इसी प्रकार उपशमश्रेणी वाला जीव मोह का उपशम करता है उसे दबाता है, नष्ट नहीं करता । इसका परिणाम यह होता है कि थोड़े समय के पश्चात् मोहनीय कर्म फिर उदय में आ जाता है और वह श्रात्मा को श्रागे बढ़ने से रोकता ही नहीं वरन् नीचे गिरा देता है । ऐसा जीव म्यारहवें गुणस्थानमें जाकर उससे आगे नहीं बढ़ता। क्षपक श्रेणी वाला जीव मोहकर्म की प्रकृतियों का क्षय करता हुआ आगे बढ़ता है, अतएव उसके पतित होने का अवसर नहीं आता। वह दसवें गुणस्थान से लीधा चारहवें गुणस्थान में जाता है और सदा के लिए अप्रतिपाती बन जाता है। जो जीव आठवे गुणस्थान को प्राप्त कर चुके हैं, जो जीव प्राप्त कर रहे हैं और जो प्राप्त करेंगे, उन सब जीवों के अध्यवसाय स्थानों की अर्थात् परिणामों की संख्या. असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों की बराबर है। श्राठवें गुणस्थान की स्थिति अन्तर्मु. हुर्त प्रमाण है। एक अन्तर्मुहूर्त में असंख्यात समय होते हैं, जिनमें से प्रथम समय- . वर्ती सब जीवों के अध्यवसाय भी असंख्यात लोशाकाशों के प्रदेशों के तुरुप हैं। इसी प्रकार द्वितीय लमयी, तृतीय समयवती त्रैकालिफ जीवों के अध्यवसायों की संख्या भी उतनी है । इस प्रकार एक-एक समयवती जीवों के अध्यवसायों की संख्यात असंख्यात लोकाकाशों के प्रदेशों के बराबर होने पर भी सब समयों में वर्तमान जीवों के अध्यवसायों की संख्या भी असंख्यात है, पर दोनों असंख्यातों में बहुत अन्तर है । असंन्यात के असंख्यात भेद होने के कारण दोनों संख्याएँ भसंख्यात कहलाती हैं। .. यद्यपि आठवें गुणस्थानवी तीनों कालों के जीव अनन्त हैं तथापि उनके अध्यवसाय स्थान असंख्यात ही होते हैं, क्योंकि बहुत से जीव ऐसे होते हैं जो समसमयवर्ती हैं और जिनके अध्यवसायों में भिन्नता नहीं मानी जाती। . प्रत्येक समय के अध्यवसायों में कुछ कम शुद्धि वाले और कुछ बहुत अधिक शद्धि वाले होते हैं। कम शुद्ध अध्यवसायों को जघन्य और अधिक शुद्ध अध्यवसायों को उत्कृष्ट अध्यवसाय कहते हैं। इन दोनों प्रकार के अध्यवसायों के बीच मध्यमश्रेणी के भी असंख्यात प्रकार के अध्यवसाय होते हैं।
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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