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________________ बहारहवी अध्याय संयख की प्राप्ति हो जाती है, किन्तु विचित् अशुद्धि उत्पन्न करने वाला प्रसाद विद्यमान रहता है, उस अवस्था को प्रमत्तविरत अवस्था कहते हैं। जो जीव व्यक्त या अव्यक्त प्रलाद से जलता है वह प्रमससंयत्त कहलाता है । ऐसा जीन समस्त गुणों एवं शालो से संपन और महारती होता है। प्रमत्तसंयत गणस्थान वाला जीव उली भव में सुक्ति लाभ कर सकता है और उत्कृष्ट सात-आउ भवों से मोक्ष प्राप्त करता है। ऐसा जीव, मनुष्य अथवा देवगति में ही उत्पन्न होता है। [७] अप्रमत्तसंयत गुणस्थान-छठे गुणस्थान में आत्मा को जो शान्ति और निराकुलता का अनुभव होता था उसमें प्रमाद बाधा पहुंचा देता था । शात्मा जब इस प्रमाद रूप बाधा को भी दूर कर देता है अौर छात्मिक स्वरूप की अभिव्यक्ति के साधन रूप ध्यान, मनन, चिन्तन आदि में ही लीन रहता है, उस समय की उसकी अवस्था को अप्रमत्त-संबत मुणस्थान कहते हैं । जब श्रात्मा सातवें गुणस्थान में वर्त्तता है तब वह बाह्य क्रियाओं से रहित होता है । बाह्य क्रिया करने पर सातव गणस्थान छूट कर छठा झा जाता है । इस प्रकार प्रात्मा की छठे में और कभी सातवें में आता-जाता रहता है। मद, विषय, कायाय, निद्रा और विकथा यह पाँच प्रकार के प्रमाद हैं । इनसे पहित होने पर अप्रमत्त गुणस्थान प्राप्त होता है। यहां इतना ध्यान रखना चाहिए के सातवें गुणस्थान में कषाय का सर्वथा नाश नहीं होता । संज्वलन कषाय और जो कषाय की मन्दता उस समय भी रहती है । कहा भी है: लंजलगणो कषायागुंदो मंदो जहा तदा होदी। अपमत्तगुणो तेण य अपमत्तो संजदो होदि ॥ अर्थात-संज्वलन कषाय और नो कषाय का जब मंद उदय होता है और अमाद से रहित हो जाता है तब आत्मा अप्रमत्त संयत कहलात है। नहालेरूपमादो चयगुणलीलालिमंडिओ गाणी । अणुवसमओ अनबनो, साणणिलीणो हु अपमत्तो॥ अर्थात-जिसने सब प्रमादों का नाश करदिया है, जो प्रतों से, गुणों से और शीलों से मंडित हैं, जिसे अपूर्व प्रात्मज्ञान प्राप्त हो गया है, परन्तु जो अभीतक. उपशमक या क्षपक नहीं हुआ है और जो ध्यान में लीन है,ऐसा आत्मा अप्रमत्त संयत कहलाता है। सातवां गुणस्थान एक अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त ही रहता है | [८] निवृत्ति बादर गुणस्थान-अपूर्वकररंग-लाल गुणस्थान में प्रमाद का अभाव करके शात्मा अपनी शक्लियों को विशेष रूप से विकसित कर विशिष्ट अप्रमत्तता प्राप्त कर लेता है । इस अवस्था में आत्मा में अद्भुत निर्मलता आती है। शुक्लध्यान यहां से प्रारंभ हो जाता है । इसी अवस्था को अपूर्व करण गुणस्थान
SR No.010520
Book TitleNirgrantha Pravachan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachad Bharilla
PublisherJainoday Pustak Prakashan Samiti Ratlam
Publication Year
Total Pages787
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size51 MB
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