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अठारहवां अध्याय
जया धुणइ कम्मरयं, श्रबोहिकलुसं कडं ।
तया सव्वत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छ । अर्थात-मनुष्य जब मिथ्यात्व आदि से लंचित कर्मरज को हटा देता है तब उसे सर्व ज्ञान और लर्व दर्शन अर्थात सर्वज्ञता तथा सर्वदर्शित्व की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि कर्म-रज दूर होने पर आत्मा का स्वाभाविक अनन्तज्ञान और 'अनन्त दर्शन प्रकट हो जाता है। सुवर्ण में से मल हटने पर जैस सुवर्ण अपने स्वाभाविक तेज से चमकने लगता है उसी प्रकार कर्म-रज से युक्त आत्मा भी अपने जैसर्गिक ज्ञान-दर्शन पर्याय से विराजमान हो जाता है।
जया सवत्तगं नाणं, दसणं चाभिगच्छद ।
तया लोगमलोग च, जिणो जाणइ लेवली ॥ अर्थात-जब जीव सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हो जाता है तब यह राग-द्वेष को जीत लेने वाला केवलज्ञानी लोक और अलोक को जान लेता है।
जया लोगमलोगं च, जिरणो जाणइ केवली ।
तया जोगे निसभित्ता, सेलिसिं पडिवजह ॥ अर्थात-जब केवली जिन अवस्था प्राप्त कर लेता है तब मन, वचन, काय के योगों का निरोध कर के, पर्वत के समान निश्चल परिणाम--शैलेशीकरण-को प्राप्त होता है।
जया जोगे निमित्ता, सेलेमि पडिवज्जइ ।
तया कम्मं स्ववित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरो॥ अर्थात--जीव जब योगों का निरोध करके शैलेशीकरण प्राप्त कर लेता है तथा समस्त कर्मों को क्षीण करके, कर्म-रज से सर्वथा मुक्त होकर सिद्धि प्राप्त करता है।
जया कम नवित्ताणं, सिद्धिं गच्छइ नीरो।
तया लोगमत्थयत्थो, सिद्धो हवाइ सासो॥ मर्थात--जीव जब कर्मों का क्षय करके सिद्धि प्राप्त करता है और कर्म-रज से मुक्त हो जाता है तब लोक के मस्तक पर उच्च भाग पर स्थित हो जाता है और शाश्वत सिद्ध हो जाता है । तात्पर्य यह कि सांसारिक पर्यायें जैसे अनित्य एवं अध्रुव है, सिद्ध पर्याय वैली अनित्य नहीं है। नर-नारक आदि पर्यायें औदायक भाव में हैं, फर्म के उदय से उत्पन्न होती हैं और जब तक कर्म का उदय रहता है तब तक रहती हैं । कर्म का उदय समाप्त होते ही उनकी भी समाप्ति हो जाती है । सिद्ध 'पर्याय औदायिक नहीं है। वह क्षायिक भाव में है--समस्त कर्मों के प्रात्यन्तिक क्षय
से उसका लाभ होता है, अतः एक बार उत्पन्न होने के पश्चात फिर उसका प्रभाव 'कदापि नहीं होता। इसी कारण सिद्ध का विशेषण ' शाश्वत' दिया गया है।
उपर्युक्त क्रम से यह भलीभांति ज्ञात हो जाता है कि शाश्वत सिद्ध गति प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम जीव-अजीव या श्रात्मा-अनात्मा का भेद-विज्ञान होना