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मोक्ष-स्वरुप भ्रमण करता रहता है अर्थात आत्मा शाश्वत है और वह एक ही गति में नष्ट नहीं हो जाता किन्तु. एक गति ले दूसरी गति में जाता है अर्थात परलोक गमन करता है, तब वह नाना गतियों में भ्रमण करने से उले पुण्य और पाप का ज्ञान होता है और बंध तथा मोक्ष का भी ज्ञान होता है, क्योंकि पुस्य एवं पाप के कारण ही जीव को नाना गतियों में भ्रमण करना पड़ता है । पुण्य एवं पाप कर्म-बंध के आश्रित हैं अतएव उसे बंध का भी ज्ञान होता है और बंध का सर्वथा अभाव रूप मोक्ष भी वह जान लेता है।
जया पुराणं च पावं च, बंधं मुक्खं च जाण ।
तया निविदए पोए, जे दिव्वे जे य माणु ले ॥ अर्थात--जीव को जब पुण्य, पाप, बंध और मोक्ष का भलीभांति परिचय हो जाता है, तब वह देव और मनुष्य संबंधी कामभोगों को हेय समझ कर त्याग देता है। तात्पर्य यह है कि सत्वज्ञान होने पर भोगों के प्रति स्पृहा नहीं रह जाती और फिर मनुष्य विरक्त बन जाता है।
जया निविदए भोए, जे दिव्वे जे प्रमाणु से।
तया चयइ संजोगं, लभितर वाहिरं ॥ अर्थात--भोगों के प्रति निर्वेद-अनासक्ति होने के अनन्तर मनुष्य प्राभ्यन्तर संयोग--क्रोध, मान, माया, लोभ-और बाह्य लंयोग--माता पिता, पुत्र-पौत्र, पत्नी श्रादि के संबंध का परित्याग कर देता है।।
जया चयइ संजोगं, सभितरवाहिरं ।
तया मुंडे भवित्ताणं, पव्वइए अणगारियं ॥ अर्थात--आभ्यन्तर और बाह्य संयोग का त्याग करने के पश्चात मनुष्य मुंडित होकर अनगार वृत्ति धारण करता है । वह केश आदि का द्रव्य मुंडन करके और इन्द्रियनिग्रह श्रादि रूप भावमुंडन करके गृहवास का त्याग कर देता है और साधु पर्याय अंर्गाकार करता है।
जया मुंडे भवित्ता गं, पब्बइए पाणगारियं ।
तया लंवर मुक्तिटुं, धम्म फासे अणुत्तरं ॥ - अर्थात- मनुष्य जय मुंडित हो कर अनगार अवस्था अंगीकार करता है तब वह उत्कृष्ट संवर और सर्वोत्कृष्ट धर्म को स्पर्श करता है । संवर के द्वारा नवीन कमों का बंध रोक देता है। अनुत्तर धर्म का अथवा संवर का आचरण करने वाले । पुरुष के कर्म-बंध का अभाव हो जाता है।
जया संवरमुक्किएं, धर्म फासे अणुत्तरं ।
तया धुणइ कम्मरयं, अवोहिकलुसंकडं ॥ अर्थात--मनुष्य जब उत्कृष्ट संवर-धर्म का स्पर्श करता है तव मिथ्यात्व श्रादि के कारण पूर्व संचित कर्म-रज को श्रात्मा से हटा देता है।